"पृष्ठ:चिंतामणि.pdf/७४": अवतरणों में अंतर
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का फूल और रमणी का सुन्दर मुख अच्छा लगता है। वीणा की तान और अपनी तारीफ़ अच्छी लगती है, जूही और केसर की गन्ध अच्छी लगती है, रबड़ी और मालपुवा अच्छा लगता है, मुलायम गद्दा अच्छा लगता है। ये सब वस्तुएँ तो आप आनन्द देती हैं इससे इनकी प्राप्ति की इच्छा बहुत सीधी-सादी और स्वाभाविक कही जा सकती है। पर जिससे इन सब वस्तुओं की प्राप्ति सुलभ होती है उसमें चाहे आनन्द देने वाली स्वतः कोई बात न हो, पर उसकी प्राप्ति की इच्छा होती है, उसका लोभ होता है। रुपये के रूप, रस, गन्ध आदि में कोई आकर्षण नहीं होता पर जिस वेग से मनुष्य उस पर टूटते हैं उस वेग से भौंरे कमल पर और कौए मांस पर भी न टूटते होंगे। यहाँ तक कि 'लोभी' शब्द से साधारणतः रुपये-पैसे का लोभी, धन का लोभी, समझा जाता है। एक धातुखण्ड के गर्भ में कितने प्रकार के सुख और आनन्द मनुष्य समझता है। पर यह समझ इतनी पुरानी पड़ गई है कि इसकी ओर हमारा ध्यान अब प्रायः नहीं रहता। धन-संचय करने में बहुतों का लक्ष्य धन ही रहता है, उससे प्राप्य सुख नहीं। वे बड़े से बड़े सुख के बदले में या कठिन से कठिन कष्ट के निवारण के लिए थोड़ा-सा भी धन अलग करना नही चाहते। उनके लिए साधन ही साध्य हो जाता है। |
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स्थितिभेद से प्रिय या अच्छी लगनेवाली वस्तु के सम्बन्ध में इच्छा दो प्रकार की होती |
स्थितिभेद से प्रिय या अच्छी लगनेवाली वस्तु के सम्बन्ध में इच्छा दो प्रकार की होती है–– |
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# प्राप्ति या सान्निध्य की इच्छा। |
# प्राप्ति या सान्निध्य की इच्छा। |
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# दूर न करने या नष्ट न होने देने की इच्छा। |
# दूर न करने या नष्ट न होने देने की इच्छा। |
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# इतने सम्पर्क की इच्छा जितना और किसी का न हो। |
# इतने सम्पर्क की इच्छा जितना और किसी का न हो। |
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# इतने सम्पर्क की इच्छा जितना सब कोई या बहुत से लोग एक साथ रख सकते हों। |
# इतने सम्पर्क की इच्छा जितना सब कोई या बहुत से लोग एक साथ रख सकते हों। |
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इनमें से प्रथम प्रतिषेधात्मक होने के कारण प्रायः विरोधग्रस्त होती है इससे उस पर समाज का ध्यान अधिक रहता है। कोई वस्तु हमें |
इनमें से प्रथम प्रतिषेधात्मक होने के कारण प्रायः विरोधग्रस्त होती है इससे उस पर समाज का ध्यान अधिक रहता है। कोई वस्तु हमें |