"पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/६८५": अवतरणों में अंतर
रोहित साव27 (वार्ता | योगदान) |
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<Poem>द्युमत्सेन--मोहि न धन को सोच भाग्य-बस होत जात धन। |
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{{Gap}}पुनि निरधन सा दोस न होत यहौ गुन गुनि मन॥ |
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{{Gap}}मोकहँ इक दुख यहै जु प्रेमिन हू मोहि त्याग्यौ। |
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{{Gap}}बिना द्रव्य के स्वानहु नहिं मोसों अनुराग्यौ॥ |
{{Gap}}{{Gap}}बिना द्रव्य के स्वानहु नहिं मोसों अनुराग्यौ॥ |
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{{Gap}}सब मित्रन छोड़ी मित्रता बंधुन हू नातो तज्यौ। |
{{Gap}}{{Gap}}सब मित्रन छोड़ी मित्रता बंधुन हू नातो तज्यौ। |
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{{Gap}}जो दास रह्यौ मम गेह को मिलनहुँ मैं अब सो लज्यो॥</poem> |
{{Gap}}{{Gap}}जो दास रह्यौ मम गेह को मिलनहुँ मैं अब सो लज्यो॥</poem> |
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⚫ | <Br>द्युमत्सेन--नहीं, उनके न मिलने का मुझको अणुमात्र सोच नहीं है। मुझको तो ऐसे तुच्छमना लोगो के ऊपर उलटी दया उत्पन्न होती है। मुझको अपनी निर्धनता केवल उस समय अति गढाती है जब किसी सत्पुरुष कुलीन को द्रव्य के प्रभाव से दुःखी देखता हूँ। उस समय मुझको निस्संदेह यह हाय होती है कि आज द्रव्य होता तो मैं उसकी सहायता करता। |
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⚫ | द्युमत्सेन--नहीं, उनके न मिलने का मुझको अणुमात्र सोच नहीं है। मुझको तो ऐसे तुच्छमना लोगो के ऊपर उलटी दया उत्पन्न होती है। मुझको अपनी निर्धनता केवल उस समय अति गढाती है जब किसी सत्पुरुष कुलीन को द्रव्य के प्रभाव से दुःखी देखता हूँ। उस समय मुझको निस्संदेह यह हाय होती है कि आज द्रव्य होता तो मैं उसकी सहायता करता। |
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