"पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/६८५": अवतरणों में अंतर
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द्युमत्सेन--मोहि न धन को सोच भाग्य-बस होत जात धन। |
{{poem begin}}<Poem>द्युमत्सेन--मोहि न धन को सोच भाग्य-बस होत जात धन। |
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पुनि निरधन सा दोस न होत यहौ गुन गुनि मन॥ |
{{Gap}}पुनि निरधन सा दोस न होत यहौ गुन गुनि मन॥ |
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मोकहँ इक दुख यहै जु प्रेमिन हू मोहि त्याग्यौ। |
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बिना द्रव्य के स्वानहु नहिं मोसों अनुराग्यौ॥ |
{{Gap}}बिना द्रव्य के स्वानहु नहिं मोसों अनुराग्यौ॥ |
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सब मित्रन छोड़ी मित्रता बंधुन हू नातो तज्यौ। |
{{Gap}}सब मित्रन छोड़ी मित्रता बंधुन हू नातो तज्यौ। |
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जो दास रह्यौ मम गेह को मिलनहुँ मैं अब सो लज्यो॥ |
{{Gap}}जो दास रह्यौ मम गेह को मिलनहुँ मैं अब सो लज्यो॥</poem>{{poem end}} |
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प० ऋषि--तो इसमें आपकी क्या हानि है? ऐसे लोगों से न मिलना ही अच्छा है। |
प० ऋषि--तो इसमें आपकी क्या हानि है? ऐसे लोगों से न मिलना ही अच्छा है। |
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द्युमत्सेन--नहीं, उनके न मिलने का मुझको अणुमात्र सोच नहीं है। मुझको तो ऐसे तुच्छमना लोगो के ऊपर उलटी दया उत्पन्न होती है। मुझको अपनी निर्धनता केवल उस समय अति गढाती है जब किसी सत्पुरुष कुलीन को द्रव्य के प्रभाव से दुःखी देखता हूँ। उस समय मुझको निस्संदेह यह हाय होती है कि आज द्रव्य होता तो मैं उसकी सहायता करता। |
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द्युमत्सेन--नहीं, उनके न मिलने का मुझको अणुमात्र सोच नहीं |
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है। मुझको तो ऐसे तुच्छमना लोगो के ऊपर उलटी |
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दया उत्पन्न होती है। मुझको अपनी निर्धनता केवल उस |
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समय अति गढाती है जब किसी सत्पुरुष कुलीन को द्रव्य |
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के प्रभाव से दुःखी देखता हूँ। उस समय मुझको निस्संदेह यह हाय होती है कि आज द्रव्य होता तो मैं उसकी |
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सहायता करता। |
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दू० ऋषि--आपके मन में इसका खेद होता है तो मानसिक |
दू० ऋषि--आपके मन में इसका खेद होता है तो मानसिक पुण्य आपको हो चुका। और आपकी मनोवृत्ति ऐसी है तो वह अवश्य एक न एक दिन फलवती होगी। |
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पुण्य आपको हो चुका। और आपकी मनोवृत्ति ऐसी |
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है तो वह अवश्य एक न एक दिन फलवती होगी। |
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प० ऋषि--सज्जनगण स्वयं दुर्दशाग्रस्त रहते है, तब भी उनसे |
प० ऋषि--सज्जनगण स्वयं दुर्दशाग्रस्त रहते है, तब भी उनसे जगत में नाना प्रकार के कल्याण ही होते हैं। |
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जगत में नाना प्रकार के कल्याण ही होते हैं। |
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द्युमत्सेन--अब मुझसे किसी का क्या कल्याण होगा! बुढ़ापे से |
द्युमत्सेन--अब मुझसे किसी का क्या कल्याण होगा! बुढ़ापे से |