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रोहित साव27 (वार्ता | योगदान) |
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भारतेंदु-नाटकावली |
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मोकहँ इक दुख यहै जु प्रेमिन हू मोहि त्याग्यौ। |
मोकहँ इक दुख यहै जु प्रेमिन हू मोहि त्याग्यौ। |
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बिना द्रव्य के स्वानहु नहिं मोसों |
बिना द्रव्य के स्वानहु नहिं मोसों अनुराग्यौ॥ |
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सब मित्रन छोड़ी मित्रता बंधुन हू नातो तज्यौ। |
सब मित्रन छोड़ी मित्रता बंधुन हू नातो तज्यौ। |
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जो दास रह्यौ मम गेह को मिलनहुँ मैं अब सो लज्यो॥ |
जो दास रह्यौ मम गेह को मिलनहुँ मैं अब सो लज्यो॥ |
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प० ऋषि-तो इसमें आपकी क्या हानि है ? ऐसे लोगों से न |
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मिलना ही अच्छा है। |
प० ऋषि--तो इसमें आपकी क्या हानि है? ऐसे लोगों से न मिलना ही अच्छा है। |
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द्युमत्सेन--नहीं, उनके न मिलने का मुझको अणुमात्र सोच नहीं |
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है। मुझको तो ऐसे तुच्छमना लोगो के ऊपर उलटी |
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दया उत्पन्न होती |
दया उत्पन्न होती है। मुझको अपनी निर्धनता केवल उस |
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समय अति गढाती है जब किसी सत्पुरुष कुलीन को द्रव्य |
समय अति गढाती है जब किसी सत्पुरुष कुलीन को द्रव्य |
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के प्रभाव से दुःखी देखता हूँ। उस समय मुझको |
के प्रभाव से दुःखी देखता हूँ। उस समय मुझको निस्संदेह यह हाय होती है कि आज द्रव्य होता तो मैं उसकी |
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देह यह हाय होती है कि आज द्रव्य होता तो मैं उसकी |
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सहायता करता। |
सहायता करता। |
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दू० ऋषि-आपके मन में इसका खेद होता है तो मानसिक |
दू० ऋषि--आपके मन में इसका खेद होता है तो मानसिक |
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पुण्य |
पुण्य आपको हो चुका। और आपकी मनोवृत्ति ऐसी |
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है तो वह अवश्य एक न एक दिन फलवती होगी। |
है तो वह अवश्य एक न एक दिन फलवती होगी। |
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प० ऋषि- |
प० ऋषि--सज्जनगण स्वयं दुर्दशाग्रस्त रहते है, तब भी उनसे |
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जगत में नाना प्रकार के कल्याण ही होते हैं। |
जगत में नाना प्रकार के कल्याण ही होते हैं। |
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द्युमत्सेन--अब मुझसे किसी का क्या कल्याण होगा! बुढ़ापे से |