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<poem><center>जाके हित तुम तजि राजभेष सुख-भीनो।
सतीप्रताप
यह जोग-भेष निज कोमल अँग पर लीनो॥</center></poem>
५८७
सावित्री--(ईषत् क्रोध से)
जाके हित तुम तजि राजभेष सुख-भीनो।
<poem><center>बस-बस! रसना रोको ऐसी मति भाखो।
यह जोग-भेष निज कोमल अंग पर लीनो ॥
सावित्री-(ईषत् क्रोध से)
बस-बस ! रसना रोको ऐसी मति भाखो।
कछु धरमहु को भय अपने जिय मैं राखो॥
कछु धरमहु को भय अपने जिय मैं राखो॥
कुल-कामिनि लैगनिका-धरमहि अभिलाखो।
कुल-कामिनि ह्वै गनिका-धरमहि अभिलाखो।
तजि अमृतफल क्यो विषमय विषयहि चाखो॥
तजि अमृतफल क्यो विषमय विषयहि चाखो॥
सब समुझि-बूझि क्यो निंदहु मूरख तीनों।
सब समुझि-बूझि क्यो निंदहु मूरख तीनों।
यह जोग-भेष जो कोमल अंग पर लीनो ॥
यह जोग-भेष जो कोमल अँग पर लीनो॥</center></poem>
लवंगी-सखी को कैसा जल्दी क्रोध आया है ?
लवंगी--सखी को कैसा जल्दी क्रोध आया है?

सावित्री-अनुचित बात सुनकर किसको क्रोध न आवेगा?
सावित्री--अनुचित बात सुनकर किसको क्रोध न आवेगा?
सुर०-सखी! हम लोगों ने जो वचन दिया था वह पूरा किया।

सावित्री-वचन कैसा?
सुर०-सखी, तुम्हारे माता-पिता ने हम लोगों से वचन लिया
सुर०--सखी! हम लोगों ने जो वचन दिया था वह पूरा किया।

था कि जहाँ तक हो सकेगा हम लोग तुमको इस मनोरथ
सावित्री--वचन कैसा?
से निवृत्त करेंगे।

सावित्री-निवृत्त करोगी? धर्मपथ से ? सत्य प्रेम से ? और
सुर०--सखी, तुम्हारे माता-पिता ने हम लोगों से वचन लिया था कि जहाँ तक हो सकेगा हम लोग तुमको इस मनोरथ से निवृत्त करेंगे।
इसी शरीर में?

सुर०-सखी, शांत भाव धारण करो। हम लोग तुम्हारी सखी
सावित्री--निवृत्त करोगी? धर्मपथ से? सत्य प्रेम से? और इसी शरीर में?
हैं, कोई अन्य नहीं हैं। जिसमें तुमको सुख मिले वही हम

सुर०--सखी, शांत भाव धारण करो। हम लोग तुम्हारी सखी हैं, कोई अन्य नहीं हैं। जिसमें तुमको सुख मिले वही हम