"पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/२३०": अवतरणों में अंतर

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धौं=न जाने। तो=था। बारिज॰=कमलनाल तोड़ने से उसमें जो बहुत पतले तंतु निकलते हैं। जहाँ तो=जहाँ से। [८२] अँचै॰=पी गई। [८३] निगम=ब्रहाज्ञान। परेखो विश्वास। काल-मुख॰=काल के मुख से बचाकर फिर उसी में डाल दिया। घनसार=कपूर। [८७] कमलनयन=श्रीकृष्ण। घाली=भेजी। द्वार ह्वै=द्वार पर से। केतिक=कितनी ही। साली=पीड़ा करने लगी। [८८] बदन॰=मुखचन्द्र। मनिदुति=सूर्यकांत मणि। [८९] कागर=कागज। सर=सरकंडा (जिसकी कलम बनती है)। अरे=बंद। [१०] कबंध=धड़ (शूरों का धड़ सिर कट जाने पर भी लड़ता रहता है और भारी मारकाट मचाता है)। बल=बलपूर्वक। बारुहि॰=बालू की दीवार। [९१] अंतर्गत=मन में। भाव॰=प्रेमपूर्वक। [९३] बई=लगी। ठई=की, बनाई। [९४] राज-गति॰=राजनीति। [९६] मनसाहू=इच्छा तक। चेति=विचार करके। एति=इतनी, ऐसी। [९७] सतरात=चिढ़ता। ब्रजलोचन=श्रीकृष्ण। [९८] निमेख=पलक। अहनिसि=अहर्निश, दिनरात। उघारे=नग्न। [९९] पास=फंदा। रहत न॰=नेत्रों से जल गिरना रुकता नहीं। [१००] स्रमजल=पसीना। अंतर-तनु=भीतर तक, भली भांति। नलिनी=कमलिनी। हिमकर=चन्द्रमा। [१०१] पुरइनि=(पद्मिनी) कमल। पान=पत्र, पत्ता। मिलाइए––'पद्मपत्रमिवाम्भसा'। परागी=अनुरक्त। परागी=चिपटना। [१०३] घट=शरीर। [१०४] पूरब लौं=पूर्व की ओर, मथुरा। मसान जगाना=शव पर बैठकर तंत्रशास्त्र के अनुसार सिद्धि प्रात करना। [१०५] कुहित=बुरी। उपचार= दवा। धुन=रंगढंग। [१०६] चपरि=शीघ्रता से, एकबारगी। कुंतल=केश। भुरै लई=ठग लिया। निरस॰=रसहीन हो गई। करखे तें॰=खींचने पर भी हटी नहीं। घनस्याम=श्रीकृष्ण; बादल। छिजई=घिस डाली। [१०८] मधु=शहद (का छत्ता)। पानि=हाथ‌। पलक॰=हाथ से पलकें मल रही थी, जगने का प्रयत्न कर रही थी। निरोध=रोक-छेंक। निबरे=निकलकर जा सके। कृपन॰=कृपण
धौं=न जाने। तो=था। बारिज॰=कमलनाल तोड़ने से उसमें जो बहुत पतले तंतु निकलते हैं। जहाँ तो=जहाँ से। [८२] अँचै॰=पी गई। [८३] निगम=ब्रहाज्ञान। परेखो=विश्वास। काल-मुख॰=काल के मुख से बचाकर फिर उसी में डाल दिया। घनसार=कपूर। [८७] कमलनयन=श्रीकृष्ण। घाली=भेजी। द्वार ह्वै=द्वार पर से। केतिक=कितनी ही। साली=पीड़ा करने लगी। [८८] बदन॰=मुखचन्द्र। मनिदुति=सूर्यकांत मणि। [८९] कागर=कागज। सर=सरकंडा (जिसकी कलम बनती है)। अरे=बंद। [१०] कबंध=धड़ (शूरों का धड़ सिर कट जाने पर भी लड़ता रहता है और भारी मारकाट मचाता है)। बल=बलपूर्वक। बारुहि॰=बालू की दीवार। [९१] अंतर्गत=मन में। भाव॰=प्रेमपूर्वक। [९३] बई=लगी। ठई=की, बनाई। [९४] राज-गति॰=राजनीति। [९६] मनसाहू=इच्छा तक। चेति=विचार करके। एति=इतनी, ऐसी। [९७] सतरात=चिढ़ता। ब्रजलोचन=श्रीकृष्ण। [९८] निमेख=पलक। अहनिसि=अहर्निश, दिनरात। उघारे=नग्न। [९९] पास=फंदा। रहत न॰=नेत्रों से जल गिरना रुकता नहीं। [१००] स्रमजल=पसीना। अंतर-तनु=भीतर तक, भली भांति। नलिनी=कमलिनी। हिमकर=चन्द्रमा। [१०१] पुरइनि=(पद्मिनी) कमल। पान=पत्र, पत्ता। मिलाइए––'पद्मपत्रमिवाम्भसा'। परागी=अनुरक्त। पागी=चिपटना। [१०३] घट=शरीर। [१०४] पूरब लौं=पूर्व की ओर, मथुरा। मसान जगाना=शव पर बैठकर तंत्रशास्त्र के अनुसार सिद्धि प्रात करना। [१०५] कुहित=बुरी। उपचार= दवा। धुन=रंगढंग। [१०६] चपरि=शीघ्रता से, एकबारगी। कुंतल=केश। भुरै लई=ठग लिया। निरस॰=रसहीन हो गई। करखे तें॰=खींचने पर भी हटी नहीं। घनस्याम=श्रीकृष्ण; बादल। छिजई=घिस डाली। [१०८] मधु=शहद (का छत्ता)। पानि=हाथ‌। पलक॰=हाथ से पलकें मल रही थी, जगने का प्रयत्न कर रही थी। निरोध=रोक-छेंक। निबरे=निकलकर जा सके। कृपन॰=कृपण