"पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/२२९": अवतरणों में अंतर

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मूर=मूलधन। [६३] और॰=कहीं दूसरे पर टिके। प्रेमहिं॰=प्रेम के संबंध से। [६५] अछत=रहते। [६६] पदारथ॰=यद्यपि वह मुक्ति चार पदार्थों (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) में से है। [६८] दूत=इधर की उधर लगानेवाले। [६९] ज्यों अहि॰=काट लेने से साँप का पेट नहीं भरता पर उसकी यही बान होती है। [७०] भूत॰=आकारहीन, छायामात्र। अँचवत=पीते हैं। [७१] रमत=मग्न होते हैं। भाजत॰=भागते और छिपते रहते हैं। समाने=आए। [७२] झाँई=प्रतिबिंब। मुकुर=दर्पण। बिकट=टेढ़ी। होत त्रिभंग=गले, कमर और पैर पर से टेढ़े होकर। मुकुतमाल=मोती की माला। [७३] गनि=समझकर। गुन=गुण की सीमा, अत्यन्त गुणयुक्त। बिधि-बंधान=ब्रह्मा की रचना। अबतंस=कान का आभूषण, कुंडल। भान=भानु, सूर्य। रुचि=शोभा। कंबु=शंख। उदार=चौड़ा। मनि=मणि, कौस्तुभ। निर्तत=नाचती है, चमकती है। [७४] अंबर=वस्त्र। सर-पंजर=बाणों का घेरा। अमी=अमृत। जैसे सूर॰=साँप काटकर भागता है तो क्या उसके मुख में अमृत की बूंद पड़ जाती है? [७५] कन=दाना। चोप=चेंप, लासा। करि=कर, हाथ। लूक=लूं। कलप॰=कल्पवृक्ष, सुख। [७६] मदन॰= काम के बाणों से बिद्ध। [७७] सगुन लै=शकुन बिचारकर। ये सब=योग, जप, व्रत आदि। बिष-बेली=कुब्जा। पायँन॰=पैरों के नीचे करके, तिरस्कार करके। मेली=डाली। [७८] सकुचासन=संकोचरूपी आसन पर बैठकर। परस करि=छूकर, दान करके, त्याग करके। पवन॰=प्राणायाम। क्रम=कर्म। निकंदन=नाश। तरनि=सूर्य। अपजस॰=अपकीर्ति सुनी अनसुनी कर देती हैं। प्रकास=ब्रह्मज्योति दर्शन। चन्द्रसूर=चन्द्रमा और सूर्य का प्रकाश (योगी इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों के मूलप्रदेश में क्रमशः चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि का सा प्रकाश मानते हैं)। अनहद=अनाहत शब्द। प्रमाने=मान, समान। समाने=ब्रह्मानन्द में लीन होने की अवस्था। [८०] असित=काले। गौं=घात। [८१] हो=था।
मूर=मूलधन। [६३] और॰=कहीं दूसरे पर टिके। प्रेमहिं॰=प्रेम के संबंध से। [६५] अछत=रहते। [६६] पदारथ॰=यद्यपि वह मुक्ति चार पदार्थों (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) में से है। [६८] दूत=इधर की उधर लगानेवाले। [६९] ज्यों अहि॰=काट लेने से साँप का पेट नहीं भरता पर उसकी यही बान होती है। [७०] भूत॰=आकारहीन, छायामात्र। अँचवत=पीते हैं। [७१] रमत=मग्न होते हैं। भाजत॰=भागते और छिपते रहते हैं। समाने=आए। [७२] झाँई=प्रतिबिंब। मुकुर=दर्पण। बिकट=टेढ़ी। होत त्रिभंग=गले, कमर और पैर पर से टेढ़े होकर। मुकुतमाल=मोती की माला। [७३] गनि=समझकर। गुन=गुण की सीमा, अत्यन्त गुणयुक्त। बिधि-बंधान=ब्रह्मा की रचना। अबतंस=कान का आभूषण, कुंडल। भान=भानु, सूर्य। रुचि=शोभा। कंबु=शंख। उदार=चौड़ा। मनि=मणि, कौस्तुभ। निर्तत=नाचती है, चमकती है। [७४] अंबर=वस्त्र। सर-पंजर=बाणों का घेरा। अमी=अमृत। जैसे सूर॰=साँप काटकर भागता है तो क्या उसके मुख में अमृत की बूंद पड़ जाती है? [७५] कन=दाना। चोप=चेंप, लासा। करि=कर, हाथ। लूक=लू। कलप॰=कल्पवृक्ष, सुख। [७६] मदन॰=काम के बाणों से बिद्ध। [७७] सगुन लै=शकुन बिचारकर। ये सब=योग, जप, व्रत आदि। बिष-बेली=कुब्जा। पायँन॰=पैरों के नीचे करके, तिरस्कार करके। मेली=डाली। [७८] सकुचासन=संकोचरूपी आसन पर बैठकर। परस करि=छूकर, दान करके, त्याग करके। पवन॰=प्राणायाम। क्रम=कर्म। निकंदन=नाश। तरनि=सूर्य। अपजस॰=अपकीर्ति सुनी अनसुनी कर देती हैं। प्रकास=ब्रह्मज्योति दर्शन। चन्द्रसूर=चन्द्रमा और सूर्य का प्रकाश (योगी इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों के मूलप्रदेश में क्रमशः चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि का सा प्रकाश मानते हैं)। अनहद=अनाहत शब्द। प्रमाने=मान, समान। समाने=ब्रह्मानन्द में लीन होने की अवस्था। [८०] असित=काले। गौं=घात। [८१] हो=था।