"पृष्ठ:गुप्त धन 1.pdf/१६": अवतरणों में अंतर
→परीक्षण हुआ नहीं: 'POPULAR WARD ४ गुप्त धन जैसा कि मैंने पहले ही बतला दिया था, म...' के साथ नया पृष्ठ बनाया |
|||
पन्ने की स्थिति | पन्ने की स्थिति | ||
- | + | शोधित | |
पन्ने का उपरी पाठ (noinclude): | पन्ने का उपरी पाठ (noinclude): | ||
पंक्ति १: | पंक्ति १: | ||
{{rh|४||गुप्त धन}} |
|||
पन्ने का मुख्य पाठ (जो इस्तेमाल में आयेगा): | पन्ने का मुख्य पाठ (जो इस्तेमाल में आयेगा): | ||
पंक्ति १: | पंक्ति १: | ||
जैसा कि मैंने पहले ही बतला दिया था, मैं तुझे फाँसी पर चढ़वा सकती हूँ मगर मैं तेरी जाँबख्शी करती हूँ इसलिए कि तुझमें वह गुण मौजूद हैं, जो मैं अपने प्रेमी में देखना चाहती हूँ और मुझे यक़ीन है कि तू जरूर कभी-न-कभी कामयाब होगा। |
|||
POPULAR |
|||
WARD |
|||
नाकाम और नामुराद दिलफ़िगार इस माशूक़ाना इनायत से ज़रा दिलेर होकर बोला––ऐ दिल की रानी, बड़ी मुद्दत के बाद तेरी ड्योढ़ी पर सजदा करना नसीब होता है। फिर ख़ुदा जाने ऐसे दिन कब आएँगे, क्या तू अपने जान देनेवाले आशिक़ के बुरे हाल पर तरस न खायेगी और क्या अपने रूप की एक झलक दिखाकर इस जलते हुए दिलफ़िगार को आनेवाली सख़्तियों के झेलने की ताक़त न देगी? तेरी एक मस्त निगाह के नशे से चूर होकर मैं वह कर सकता हूँ जो आज तक किसी से न बन पड़ा हो। |
|||
४ |
|||
गुप्त धन |
|||
दिलफ़रेब आशिक़ की यह चाव भरी बातें सुनकर गुस्सा हो गयी और हुक्म दिया कि इस दीवाने को खड़े-खड़े दरबार से निकाल दो। चोबदार ने फौरन ग़रीब दिलफ़िगार को धक्का देकर यार के कूचे से बाहर निकाल दिया। |
|||
जैसा कि मैंने पहले ही बतला दिया था, मैं तुझे फाँसी पर चढ़वा सकती हूँ |
|||
मगर मैं तेरो जाँवख्यो करती हूँ इसलिए कि तुझमें वह गुण मौजूद हैं, जो मैं |
|||
कुछ देर तक तो दिलफ़िगार अपनी निष्ठुर प्रेमिका की इस कठोरता पर आँसू बहाता रहा, और फिर सोचने लगा कि अब कहाँ जाऊँ। मुद्दतों रास्ते नापने और जंगलों में भटकने के बाद आँसू की यह बूंद मिली थी, अब ऐसी कौन-सी चीज़ है जिसकी कीमत इस आबदार मोती से ज्यादा हो। हज़रते ख़िज्र! तुमने सिकन्दर को आबे हयात के कुएँ का रास्ता दिखाया था, क्या मेरी बाँह न पकड़ोगे? सिकन्दर सारी दुनिया का मालिक था। मैं तो एक बेघरबार मुसाफ़िर हूँ। तुमने कितनी ही डूबती किश्तियाँ किनारे लगायी हैं, मुझ ग़रीब का बेड़ा भी पार करो। ऐ आलो-मुक़ाम जिबरील! कुछ तुम्हीं इस नीमजान दुखी आशिक़ पर तरस खाओ। तुम खुदा के एक ख़ास दरबारी हो, क्या मेरी मुश्किल आसान न करोगे? ग़रज़ यह कि दिलफ़िगार ने बहुत फ़रियाद मचायी मगर उसका हाथ पकड़ने के लिए कोई सामने न आया। आख़िर निराश होकर वह पागलों की तरह दुबारा एक तरफ़ को चल खड़ा हुआ। |
|||
अपने प्रेमी में देखना चाहती हूँ और मुझे यकीन है कि तू जरूर कभी-न-कभी |
|||
कामयाब होगा। |
|||
दिलफ़िगार ने पूरब से पच्छिम तक और उत्तर से दक्खिन तक कितने ही जंगलों और वीरानों की ख़ाक छानी, कभी बर्फ़िस्तानी चोटियों पर सोया, कभी डरावनी घाटियों में भटकता फिरा मगर जिस चीज़ की धुन थी वह न मिली, यहाँ तक कि उसका शरीर हड्डियों का एक ढाँचा रह गया। |
|||
नाकाम और नामुराद दिलफ़िगार इस माशूकाना इनायत से जरा दिलेर |
|||
होकर बोला- ऐ दिल की रानी, बड़ी मुद्दत के बाद तेरी ड्योढ़ी पर सजदा करना |
|||
नसीब होता है। फिर खुदा जाने ऐसे दिन कब आएँगे, क्या तू अपने जान देनेवाले |
|||
आशिक़ के बुरे हाल पर तरस न खायेगी और क्या अपने रूप की एक झलक दिखाकर |
|||
इस जलते हुए दिलफ़िगार को आनेवाली सस्तियों के झेलने को ताक़त न देगी? |
|||
तेरी एक मस्त निगाह के नशे से चूर होकर मैं वह कर सकता हूँ जो आज तक किसी |
|||
से न बन पड़ा हो। |
|||
दिलफ़रेब आशिक की यह चाव भरी वातें सुनकर गुस्सा हो गयी और हुक्म |
|||
दिया कि इस दीवाने को खड़े-खड़े दरवार से निकाल दो। चोबदार ने फौरन |
|||
गरीव दिलफ़िगार को धक्का देकर यार के कूचे से बाहर निकाल दिया। |
|||
कुछ देर तक तो दिलफ़िगार अपनी निष्ठुर प्रेमिका को इस कठोरता पर |
|||
आँसू बहाता रहा, और फिर सोचने लगा कि अब कहाँ जाऊँ। मुद्दती रास्ते नापने |
|||
और जंगलों में भटकने के बाद आँसू की यह बूंद मिली थी, अब ऐसी कौन-सी चीज़ |
|||
है जिसकी कीमत इस आबदार मोती से ज्यादा ही। हजरते खिज्र ! तुमने सिकन्दर |
|||
को आबे हयात के कुएँ का रास्ता दिखाया था, क्या मेरो बाँह न पकड़ोगे? सिकन्दर |
|||
सारी दुनिया का मालिक था। मैं तो एक बेघरबार मुसाफ़िर हूँ। तुमने कितनी ही |
|||
डूबती किश्तियाँ किनारे लगायी हैं, मुझ गरीब का बेड़ा भी पार करो। ऐ आलो- |
|||
मुकाम जिबरील ! कुछ तुम्हीं इस नीमजान दुखी आशिक़ पर तरस खाओ। |
|||
तुम खुदा के एक खास दरवारो हो, क्या मेरी मुश्किल आसान न करोगे? ग़रज़ |
|||
यह कि दिलफ़िगार ने बहुत फ़रियाद मचायी मगर उसका हाथ पकड़ने के लिए |
|||
कोई सामने न आया। आखिर निराश होकर वह पागलों की तरह दुबारा एक |
|||
तरफ़ को चल खड़ा हुआ। |
|||
दिलफ़िगार ने पूरब से पच्छिम तक और उत्तर से दक्खिन तक कितने ही |
|||
जंगलों और वीरानों की खाक छानी, कभी बफ़िस्तानी चोटियों पर सोया, कभी |
|||
डरावनी घाटियों में भटकता फिरा मगर जिस चीज़ की धुन थी वह न मिली, |
|||
यहाँ तक कि उसका शरीर हड्डियों का एक ढाँचा रह गया। |