"पृष्ठ:रक्षा बंधन.djvu/१५": अवतरणों में अंतर

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जब आध घन्टे पश्चात् पुनः बिजली आई तो वर्षा बन्द हो चुकी थी। बाहरी आदमी सब चले गये थे। रायसाहब की एक आंख सूझ आई थी, उनके एक कर्मचारी के आगे के दाँत टूट गये थे तथा अन्यों के भी हल्की चोटें पहुंची थीं।


रायसाहब ठाकुरजी की ओर देखकर बोले—"वाह महाराज आबरू तो बचा दी; परन्तु इतनी दुर्दशा करवा कर द्वार खुलने के आध घन्टे पहले वृष्टि करवा देते—इतनी भी अक्ल न आई।"


जब आध घन्टे पश्चात् पुनः बिजली आई तो वर्षा बन्द हो चुकी थी। बाहरी आदमी सब चले गये थे। रायसाहब की एक आँख सूझ आई थी, उनके एक कर्मचारी के आगे के दाँत टूट गये थे तथा अन्यों के भी हल्की चोटें पहुँची थीं।
रायसाहब का एक कर्मचारी बोला—"रायसाहब थोड़ी गलती हम लोगों ने भी की। वर्षा प्रारम्भ होते ही द्वार खोल दिया, यदि दस-पन्द्रह मिनट ठहर जाते तो भीड़ सब भाग जाती। द्वार खुल जाने से वह सब यहीं पिल पड़ी।"


रायसाहब ठाकुरजी की ओर देखकर बोले––"वाह महाराज आबरू तो बचा दी; परन्तु इतनी दुर्दशा करवा कर द्वार खुलने के आध घन्टे पहले वृष्टि करवा देते—इतनी भी अक्ल न आई।"
रायसाहब ने मन में कहा—"हाँ, यह भूल तो अवश्य हो गई।" यह सोचकर उन्होंने ठाकुरजी की ओर देखा। उधर वही निर्निमेष दृष्टि तथा मन्द मुस्कान थी।

रायसाहब का एक कर्मचारी बोला––"रायसाहब थोड़ी गलती हम लोगों ने भी की। वर्षा आरम्भ होते ही द्वार खोल दिया, यदि दस-पन्द्रह मिनट ठहर जाते तो भीड़ सब भाग जाती। द्वार खुल जाने से वह सब यहीं पिल पड़ी।"

रायसाहब ने मन में कहा––"हाँ, यह भूल तो अवश्य हो गई।" यह सोचकर उन्होंने ठाकुरजी की ओर देखा। उधर वही निर्निमेष दृष्टि तथा मन्द मुस्कान थी।