"पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग.djvu/१४": अवतरणों में अंतर
→परिक्षण हुआ नहीं: '________________ द्वितीय खण्ड । है वैसा भोगेगा । अभी तो तेरे...' के साथ नया पृष्ठ बनाया |
|||
पन्ने की स्थिति | पन्ने की स्थिति | ||
- | + | शोधित | |
पन्ने का उपरी पाठ (noinclude): | पन्ने का उपरी पाठ (noinclude): | ||
पंक्ति १: | पंक्ति १: | ||
{{rh||द्वितीय खण्ड।|११}} |
|||
पन्ने का मुख्य पाठ (जो इस्तेमाल में आयेगा): | पन्ने का मुख्य पाठ (जो इस्तेमाल में आयेगा): | ||
पंक्ति १: | पंक्ति १: | ||
⚫ | |||
________________ |
|||
⚫ | बीरेन्द्रसिंह गर्व पूर्वक हंस कर बोले कतलू खां - मैं हाथ पैर बंधा कर तुम्हारे समीप दया की आशा कर के नहीं आया हूं जिस का जीवन तुम्हारी दया के आधीन है उसका जीनाही क्या? यदि तुम केवल मेराही प्राण ले कर सन्तुष्ट होते तब भी मैं तुमको आशीर्वाद देता परन्तु तुमने तो हमारे कुल का नाश कर डाला और प्राण से भी अधिक तुमने हमारे बीरेन्द्रसिंह के मुंह से और बात नहीं निकली कंठ रूंध गया आंखों से पानी बहने लगा। भय हीन दाम्भिक बीरेन्द्रसिंह सिर नीचे करके रोने लगे। |
||
द्वितीय खण्ड । |
|||
⚫ | |||
⚫ | |||
⚫ | बीरेन्द्रसिंह गर्व पूर्वक हंस कर बोले कतलू खां-मैं हाथ पैर बंधा कर तुम्हारे समीप दया की आशा कर के नहीं आया |
||
⚫ | |||
क॰ - 'यह तो होहीगा और कुछ?' |
|||
'अब इस जन्म और कुछ न चाहिये।' |
|||
'मरती समय अपनी कन्या से भेंट नहीं करोगे?' |
|||
इस शब्द को सुन कर बीरेन्द्र सिंह के हृदय पर नया घाव |
इस शब्द को सुन कर बीरेन्द्र सिंह के हृदय पर नया घाव लगा। 'यदि हमारी कन्या तुम्हारे घर में जीती है तो उसको न देखूंगा और यदि मरगयी हो तो लाओ उसको गोद में लेकर मरूं।' दर्शकगण चुपचाप दांत लले उंगली दबाये इस कौतुक को देख रहे थे। |
||
नवाब की आज्ञा पाय 'रक्षक बीरेन्द्रसिंह को बध भूमि |
|||
पन्ने का निचला पाठ (noinclude): | पन्ने का निचला पाठ (noinclude): | ||
पंक्ति १: | पंक्ति १: | ||
[[श्रेणी:दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग]] |