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अध्याय ४ : पतिदेव


बचपनमें मैंने कभी उनकी ऐसी इच्छा नहीं देखी कि 'वह पढ़ते हैं तो मैं भी पढूं।' इससे मैं मानता हूं कि मेरी भावना इकतरफा थी। मेरा विषय-सुख एक ही स्त्रीपर अवलंबित था और मैं उस सुखकी प्रतिध्वनिकी आशा लगाये रहता था। अस्तु: प्रेम यदि एक पक्षीय भी हो तो वहां सर्वांशमें दु:ख नहीं हो सकता।

मुझे कहना चाहिए कि मैं अपनी पत्नीसे जहांतक संबंध हैं, विषयासक्त था। स्कूल में भी उसका ध्यान आता, और यह विचार मनमें चला ही करता कि कब रात हो और कब हम मिले। वियोग असह्य हो जाता था। कितनी ही ऊट-पटांग बातें कह-कहकर मैं कस्तूरबाईको देरतक सोने न देता। इस आसक्ति के साथ ही यदि मुझमें कर्त्तव्यपरायणता न होती, तो मैं समझता हूं, या तो किसी बुरी बीमारीमें फंसकर अकाल ही कालकवलित हो जाता अथवा अपने और दुनिया के लिए भारभूत होकर वृथा जीवन व्यतीत करता होता। 'सुबह होते ही नित्यकर्म तो हर हालत में करने चाहिए, झूठ तो बोल ही नहीं सकते' आदि अपने इन विचारों की बदौलत मैं अपने जीवनमें कई संकटोंसे बच गया हूं।

मैं ऊपर कह आया हूं कि कस्तूरबाई निरक्षर थीं। उन्हें पढ़ानेकी मुझे बड़ी चाह थी। पर मेरी विषय-वासना मुझे कैसे पढ़ाने देती? एक तो मुझे उनकी मर्जीके खिलाफ पढ़ाना था, फिर रातमें ही ऐसा मौका मिल सकता था। बुजुर्गोंके सामने तो पत्नीकी तरफ देखतक नहीं सकते-बात करना तो दूर रहा। उस समय काठियावाड़में घूंघट निकालनेका निरर्थक और जंगली रिवाज था, आज भी थोड़ा-बहुत बाकी है। इस कारण पढ़ानेके अवसर भी मेरे प्रतिकूल थे। इसलिए मुझे कहना होगा कि युवावस्थामें पढ़ानेकी जितनी कोशिशें-मैंने कीं वे सब प्रायः बेकार गईं; और जब मैं विषय-निद्रासे जगा तो तब सार्वजनिक जीवनमें पड़ चुका था। इस कारण अधिक समय देने योग्य मेरी स्थिति नहीं रह गई थी। शिक्षक रखकर पढ़ानेके मेरे यत्न भी विफल हुए। इसके फलस्वरूप आज कस्तूरबाई मामूली चिट्ठी-पत्री व गुजराती लिखने-पढ़नेसे अधिक साक्षर न होने पाईं। यदि मेरा प्रेम विषयसे दूषित न हुआ होता, तो मैं मानता हूं आज वह विदुषी हो गई होतीं। उनके पढ़नेके आलस्यपर मैं विजय प्राप्त कर पाता। क्योंकि मै जानता हूं कि शुद्ध प्रेमके लिए दुनियामें कोई बात असंभव नहीं।

इस तरह अपनी पत्नीके साथ विषय-रत रहते हुए भी मैं कैसे बहुत-