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आत्म-कथा : भाग १


जोड़ना पाप है। फिर कोमल वयमें एक-पत्नी-व्रतके भंग होनेकी संभावना भी कम ही रहती है।

परंतु इन सद्विचारोंका एक बुरा परिणाम निकला। 'यदि मैं एक-पत्नी-व्रतका पालन करता हूं, तो मेरी पत्नीको भी एक-पति-व्रतका पालन करना चाहिए।' इस विचारसे मैं असहिष्णु-ईर्ष्यालु पति बन गया। फिर 'पालन करना चाहिए' मेंसे 'पालन करवाना चाहिए' इस विचारतक जा पहुंचा। और यदि पालन करवाना हो तो फिर मुझे पत्नीकी चौकीदारी करनी चाहिए। पत्नीकी पवित्रतापर तो संदेह करनेका कोई कारण न था; परंतु ईर्ष्या कहीं कारण देखने जाती है? मैंने कहा-'पत्नी हमेशा कहां-कहां जाती है, यह जानना मेरे लिए जरूरी है, मेरी इजाजत लिये बिना वह कहीं नहीं जा सकती। 'मेरा यह भाव मेरे और उनके बीच दु:खद झगड़ेका मूल बन बैठा। बिना इजाजत के कहीं न जा पाना तो एक तरहकी कैद ही हो गई। परंतु कस्तूरबाई ऐसी मिट्टीकी न बनी थी, जो ऐसी कैदको बरदाश्त करतीं। जहां जी चाहे, मुझसे बिना पूछे जरूर चली जातीं। ज्यों-ज्यों मैं उन्हें दबाता त्यों-त्यों वह अधिक आजादी लेतीं, और त्यों-ही-त्यों मैं और बिगड़ता। इस कारण हम बाल-दंपतीमें अबोला रहना एक मामूली बात हो गई। कस्तूरबाई जो आजादी लिया करतीं उसे मैं बिलकुल निर्दोष मानता हूं। एक बालिका जिसके मनमें कोई पाप नहीं हैं, देव-दर्शनको जानेके लिए अथवा किसीसे मिलने जानेके लिए क्यों ऐसा दबाव सहन करने लगी? 'यदि मैं उसपर दबाव रक्खूं तो फिर वह मुझपर क्यों न रक्खे?' पर यह बात तो अब समझ में आती है। उस समय तो मुझे पतिदेवकी सत्ता सिद्ध करनी थी।

पर इससे पाठक यह न समझें कि हमारे इस गार्हस्थ्य-जीवनमें कहीं मिठास थी ही नहीं। मेरी इस वकताका मूल था प्रेम। मैं अपनी पत्नीको आदर्श स्त्री बनाना चाहता था। मेरे मनमें एकमात्र यही भाव रहता था कि मेरी पत्नी स्वच्छ हो, स्वच्छ रहे, मैं सीखूं सो सीखे, में पढ़ूं सो पढ़े और हम दोनों एक-मन दो-तन बनकर रहें।

मुझे खयाल नहीं पड़ता कि कस्तूरबाईके भी मनमें ऐसा भाव रहा हो। वह निरक्षर थीं। स्वभाव उनका सरल और स्वतंत्र था। वह परिश्रमी भी थीं, पर मेरे साथ कम बोला करतीं। अपने अज्ञानपर उन्हें असंतोष न था। अपने