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आत्म-कथा : भाग ३


भी प्रकाशित किये गये। झगड़ा अंतको विलायत तक पहुंचा; परंतु बिल नामंजूर न हुए।

अब मेरा बहुतेरा समय सार्वजनिक कामों में ही जाने लगा। मैं लिख चुका हूं कि मनसुखलाल नाजर नेटालमें थे। वह मेरे साथ हुए। जबसे वह सार्वजनिक कामोंमें अधिक योग देने लगे तबसे मेरा बोझ कुछ हलका हुआ।

मेरी गैरहाजिरीमें आदमजी मियांखानने मंत्री-पदका काम सुचारुरूपसे किया। उनके समयमें सभासदोंकी संख्या भी बढ़ी और लगभग एक हजार पौंड स्थानीय कांग्रेसके कोषमें बढे़। हम मुसाफिरोंपर हुए उस हमलेकी बदौलत तथा पूर्वोक्त बिलोंके विरोधके फलस्वरूप जो जाग्रति हुई उसके द्वारा मैने इस बढ़तीमें और भी बढ़ती करनेका विशेष उद्योग किया और अब हमारे कोषमें लगभग पांच हजार पौंड जमा हो गये। मुझे यह लोभ लग रहा था कि यदि कांग्रेसका कोष स्थायी हो जाय और जमीन ले ली जाय तो उसके किरायेसे कांग्रेस आर्थिक दृष्टिसे निश्चित हो जाय। सार्वजनिक संस्थाओंका यही मुझे पहला अनुभव था। मैंने अपना विचार अपने साथियोंके सामने रक्खा। उन्होंने उसका स्वागत किया। मकान खरीदे गये और वे किराये पर उठाये गये। जायदाद का अच्छा ट्रस्ट बनाया गया। यह जायदाद आज भी मौजूद हैं; परंतु वह आपस के कलहका मूल हो गई हैं और उसका किराया आज अदालतमें जमा हो रहा है।

यह दु:खद बात तो मेरे दक्षिण अफ्रीका छोड़ देनेके बाद हुई है; परंतु सार्वजनिक संस्थाओंके लिए स्थायी कोष रखनेके संबंधमें मेरे विचार दक्षिण अफ्रीकामें ही बदल गये। कितनी ही सार्वजनिक संस्थाओंका जन्म देने तथा उनका संचालन करनेकी जिम्मेदारी रह चुकनेके कारण मेरा यह दृढ़निर्णय हुआ है कि किसी भी सार्वजनिक संस्थाको स्थायी कोष पर निर्वाह करनेका प्रयत्न न करना चाहिए; क्योंकि इसमें नैतिक अधोगतिका बीज समाया रहता है।

सार्वजनिक संस्थाका अर्थ है लोगोंकी मंजूरी और लोगोंके धनसे चलनेवाली संस्था। जब लोगोंकी मदद मिलना बंद हो जाय तब उसे जीवित रहने का अधिकार नहीं। स्थायी संपत्तिपर चलने वाली संस्था लोकमतसे स्वतंत्र होती हुई देखी जाती हैं और कितनी ही बार तो लोकमतके विपरीत भी आचरण करती है। इसका अनुभव भारतवर्षमें हमें कदमकदमपर होता है। कितनी ही धार्मिक