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क्योंकि जिसे मैं सोलहों आने विश्वासके साथ अपने श्वासोच्छ्वासका स्वामी मानता हूं, जिसे मैं अपने नमकका देने वाला मानता हूं, उससे मैं अभी तक दूर हूं और यह बात मुझे प्रतिक्षण कांटेकी तरह चुभ रही है। इसके कारणरूप अपने विकारोंको मै देख तो सकता हूं; पर अब भी उन्हें निर्मूल नहीं कर पाया हूं।

पर अब इसे समाप्त करता हूं। प्रस्तावनासे हटकर यहां प्रयोगोंकी कथामें प्रवेश नहीं कर सकता। यह तो कथा-प्रकरणोंमें ही पाठकको मिलेगी।


सत्याग्रहाश्रम, साबरमती,

मार्गशीर्ष शुक्ला ११, १९८२.
-मोहनदास करमचन्द गांधी