यह पृष्ठ प्रमाणित है।
रामनाम


हा, यह जरूर सच है कि लाधा महाराजने जब कथा आरम्भ की थी, तब अुनका शरीर बिलकुल नीरोग था। लाधा महाराजका स्वर मधुर था। वे दोहा-चौपाअी गाते और अर्थ समझाते थे। खुद अुसके रसमे लीन हो जाते और श्रोताओको भी लीन कर देते थे। मेरी अवस्था अुस समय कोअी तेरह सालकी होगी, पर मुझे याद है कि अुनकी कथामे मेरा बहुत मन लगता था। रामायण पर जो मेरा अत्यन्त प्रेम है, अुसका पाया यही रामायण-श्रवण है। आज मै तुलसीदासकी रामायणको भक्तिमार्गका सर्वोत्तम ग्रथ मानता हू।

'आत्मकथा' से


नीतिरक्षाका अुपाय

मेरे विचारके विकार क्षीण होते जा रहे है। हा, अुनका नाश नही हो पाया है। यदि मै विचारो पर भी पूरी विजय पा सका होता, तो पिछले दस बरसोमे जो तीन रोग—पसलीका वरम, पेचिश और 'अपेडिक्स' का वरम—मुझे हुअे, वे कभी न होते।[१]मै मानता हूं कि नीरोगी आत्मा का शरीर भी


  1. मै तो पूर्णताका अेक विनीत साधक मात्र हू। मै अुसका रास्ता भी जानता हू। परन्तु रास्ता जाननेका अर्थ यह नही है कि मै आखिरी मुकाम पर पहुच गया हू। यदि मै पूर्ण पुरुष होता, यदि मै विचारोमे भी अपने तमाम मनोविकारो पर पूरा आधिपत्य कर पाया होता, तो मेरा शरीर पूर्णताको पहुच गया होता। मै कबूल करता हू कि अभी मुझे अपने विचारो को काबूमे रखनेके लिअे बहुत मानसिक शक्ति खर्च करनी पडती है। यदि कभी मै अिसमे सफल हो सका, तो खयाल कीजिये कि शक्ति का कितना बडा खजाना मुझे सेवा के लिअे खुला मिल जायगा। मै मानता हू कि मेरी अपेडिसाअिटिसकी बीमारी मेरे मनकी दुर्बलताका फल थी और नश्तर लगवानेके लिए तैयार हो जाना भी वही मनकी दुर्बलता थी। यदि मेरे अदर अहकारका पूरा अभाव होता, तो मैने अपनेको होनहारके सुपुर्द कर दिया होता। लेकिन मैने तो अपने अिसी चोलेमे रहना चाहा। पूर्ण विरक्ति किसी यात्रिक क्रियासे प्राप्त नही होती। धीरज, परिश्रम और अीश्वरआराधनाके द्वारा अुस स्थितिमे पहुचना पडता है।—हिन्दी नवजीवन, ६-४-१९२४।