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भी घर में कोई अच्छा प्रसंग आने पर गृहस्थ सार्वजनिक कुंडी बनाने का संकल्प लेते हैं और फिर इसे पूरा करने में गांव के दूसरे घर भी अपना श्रम देते हैं। कुछ सम्पन्न परिवार सार्वजनिक कुंडी बना कर उसकी रखवाली का काम एक परिवार को सौंप देते हैं। कुंड के बड़े अहाते में आगोर के बाहर इस परिवार के रहने का प्रबंध कर दिया जाता है। यह व्यवस्था दोनों तरफ से पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती है। कुंडी बनाने वाले परिवार का मुखिया अपनी संपत्ति का एक निश्चित भाग कुंडी की सारसंभाल के लिए अलग रख देता है। बाद की पीढ़ियां भी इसे निभाती हैं। आज भी यहां ऐसे बहुत से कुंड हैं, जिनको बनाने


वाले परिवार नौकरी, व्यापार के कारण यहां से निकल कर असम, बंगाल, बंबई जा बसे हैं पर रखवाली करने वाले परिवार कुंड पर ही बसे हैं। ऐसे बड़े कुंड आज भी वर्षा के जल का संग्रह करते हैं और पूरे बरस भर किसी भी नगरपालिका से ज्यादा शुद्ध पानी देते हैं।

कई कुंड टूट-फूट भी गए हैं, कहीं-कहीं पानी भी खराब हुआ है पर यह सब समाज की टूट-फूट के अनुपात में ही मिलेगा। इसमें इस पद्धति का कोई दोष नहीं है। यह पद्धति तो नई खर्चीली और अव्यावहारिक योजनाओं के दोष भी ढंकने की उदारता रखती है।