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बीस-पच्चीस हाथ की गहराई तक जाते-जाते गरमी बढ़ती जाती है और हवा भी कम होने लगती है। तब ऊपर से मुट्ठी भर-भर कर रेत नीचे तेजी से फेंकी जाती है-मरुभूमि में जो हवा रेत के विशाल टीलों तक को यहाँ से वहाँ उड़ा देती है, वही हवा यहाँ कुंई की गहराई में एक मुट्ठी रेत से उड़ने लगती है और पसीने में नहा रहे चेलवांजी को राहत दे जाती है। कुछ जगहों पर कुंई बनाने का यह कठिन काम और भी कठिन हो जाता है। किसी-किसी जगह ईंट की चिनाई से मिट्टी को रोकना संभव नहीं हो पाता। तब कुंई को रस्सी से 'बांधा' जाता हैं।

पहले दिन कुंई खोदने के साथ-साथ खींप नाम की घास का ढेर जमा कर लिया जाता है। चेजारों खुदाई शुरू करते हैं और बाकी लोग खींप की घास से कोई तीन अंगुल मोटा रस्सा बंटने लगते हैं। पहले दिन का काम पूरा होते-होते कुंई कोई दस हाथ गहरी हो जाती है और फिर उसके ऊपर तीसरा, चौथा-इस तरह ऊपर आते जाते

हो जाती है। इसके तल पर दीवार के साथ सटा कर रस्से का पहला गोला बिछाया जाता

चौथा-इस तरह ऊपर आते जाते हैं। खीप घास से बना खुरदरा मोटा रस्सा हर। घेरे पर अपना वजन डालता है और बटी-हुई लड़ियाँ एक दूसरे में फंस कर मजबूती। से एक के ऊपर एक बैठती जाती हैं। रस्से 2 का आखिरी छोर ऊपर रहता है।

अगले दिन फिर कुछ हाथ मिट्टी खोदी जाती है और रस्से की पहले दिन

में सरका दी जाती है। ऊपर छूटी दीवार में। अब नया रस्सा बांधा जाता है। रस्से की कुंडली कहीं-कहीं चिनाई भी करते जाते हैं।

लगभग पांच हाथ के व्यास की कुंई में रस्से की एक ही कुंडली का सिर्फ़ एक घेरा जत्थान की बनाने के लिए लगभग पंद्रह हाथ लंबा रस्सा चाहिए. एक हाथ की गहराई में रस्से के


२७ राजस्थान की रजत बूँदें