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है । वर्षा कभी-कभी इतनी तेज और सोकड़ इतनी चंचल हो जाती है कि बादल और धरती की लंबी दूरी क्षण भर में नप जाती है। तब बादल से धरती तक को स्पर्श करने वाली धारावली यहां धारोलो के नाम से जानी जाती है।

न तो वर्षा का खेल यहां आकर रुकता है, न शब्दों का ही। धारोलो की बौछार बाहर से घर के भीतर आने लगे तो बाछड़ कहलाती है और इस बाछड़ की नमी से नम्र, नरम हुए और भीगे कपड़ों का विशेषण बाछड़वायो बन जाता है। धारोलो के साथ उठने वाली आवाज घमक कहलाती है। यह वजनी है, पुंलिंग भी। घमक को लेकर बहने वाली प्रचंड वायु वाबल है।

धीरे-धीरे वाबल मंद पड़ती है, घमक शांत होता है, कुछ ही देर पहले धरती को स्पर्श कर रहा धारोलो वापस बादल तक लौटने लगता है। वर्षा थम जाती है। बादल अभी छंटे नहीं हैं। अस्त हो रहा सूर्य उनमें से झांक रहा है। झांकते सूर्य की लंबी किरण मोघ कहलाती है और यह भी वर्षासूचक मानी जाती है। मोघ दर्शन के बाद रात फिर वर्षा होगी। जिस रात खूब पानी गिरे, वह मामूली रैण नहीं, महारेेण कहलाती है।

तूठणो क्रिया है बरसने की और उबरेलो है उसके सिमटने की। तब चौमासा उठ जाता है, बीत जाता है। बरसने से सिमटने तक हर गांव, हर शहर अपने घरों की छत पर, आंगन में, खेतों में, चौराहों पर और निर्जन में भी बूंदों को संजी लेने के लिए अपनी 'चादर' फैलाए रखता है।

पालर यानी वर्षा के जल को संग्रह कर लेने के तरीके भी यहां बादलों और बूंदों की तरह अनंत हैं। बूंद-बूंद गागर भी भरती है और सागर भी - ऐसे सुभाषित पाठ्य पुस्तकों में नहीं, सचमुच अपने समाज की स्मृति में समाए मिलते हैं। इसी स्मृति से श्रुति बनी। जिस बात को समाज ने याद रखा, उसे उसने आगे सुनाया और बढ़ाया और न जाने कब पानी के इस काम का इतना विशाल, व्यावहारिक और बहुत व्यवस्थित ढांचा खड़ा कर दिया कि पूरा समाज उसमें एक जी हो गया। इसका आकार इतना बड़ा कि राज्य के कोई तीस हजार गांवों और तीन सौ शहरों, कस्बों में फैल कर वह निराकारसा हो गया।

ऐसे निराकार संगठन को समाज ने न राज को, सरकार को सौंपा, न आज की भाषा में 'निजी' क्षेत्र को। उसने इसे पुरानी भाषा के निजी हाथ में रख दिया। घर-घर, गांव-गांव लोगों ने ही इस ढांचे को साकार किया, संभाला और आगे बढ़ाया।

पिंडवड़ी यानी अपनी मेहनत और अपने श्रम, परिश्रम से दूसरे की सहायता। समाज परिश्रम की, पसीने की बूंदें बहाता रहा है, वर्षा की बूंदों को एकत्र करने के लिए।