पृष्ठ:Rajasthan Ki Rajat Boondein (Hindi).pdf/११

यह पृष्ठ प्रमाणित है।

राजस्थान के पुराने इतिहास में मरुभूमि का या अन्य क्षेत्रों का भी वर्णन सूखे, उजड़े और एक अभिशप्त क्षेत्र की तरह नहीं मिलता । रेगिस्तान के लिए आज प्रचलित थार शब्द भी ज्यादा नहीं दिखता ।अकाल पड़े हैं, कहीं-कहीं पानी का कष्ट भी रहा है पर गृहस्थों से लेकर जोगियों ने, कवियों से लेकर मांगणियारों ने, लंगाओं ने, हिंदू-मुसलमानों ने इसे 'धरती धोरां री' कहा है। रेगिस्तान के पुराने नामों में स्थल है, जो शायद हाकड़ी, समुद्र के सूख जाने से निकले स्थल का सूचक रहा हो । फिर स्थल का थल और महाथल बना और बोलचाल में थली और धरधूधल भी हुआ । थली तो एक बड़ी मोटी पहचान की तरह रहा है । बारीक पहचान में उसके अलग-अलग क्षेत्र अलग-अलग विशिष्ट नाम लिए थे । माड़, मारवाड़, मेवाड़, मेरवाड़, ढूंढार, गोडवाड़, हाडौती जैसे बड़े विभाजन तो दसरेक और धन्वदेश जैसे छोटे विभाजन भी थे । और इस विराट मरुस्थल के छोटे-बड़े राजा चाहे जितने रहे हों - नायक तो एक ही रहा है - श्रीकृष्ण । यहां उन्हें बहुत स्नेह के साथ मरुनायकजी की तरह पुकारा जाता है ।

मरुनायक जी का वरदान और फिर समाज के नायकों के वीज, सामथ्र्य का एक अनोखा संजोग हुआ । इस संजोग से वोजतो-ओजती यानी हरेक द्वारा अपनाई जा सकने वाली सरल, सुंदर रीति को जनम मिला । कभी नीचे धरती पर क्षितिज तक पसरा हाकड़ी ऊपर आकाश में बादलों के रूप में उड़ने लगा था ।ये बादल कम ही होंगे । पर समाज ने इनमें समाए जल को इंच या सेंटीमीटर में न देख अनगिनत बूंदों की तरह देख लिया और इन्हें मरुभूमि में, राजस्थान भर में ठीक बावड़ियों और कुएं, कुंइयों और पार में भर कर उड़ने वाले समुद्र को, अखंड हाकड़ी को खंड-खंड नीचे उतार लिया।

जसढोल, यानी प्रशंसा करना । राजस्थान ने वर्षा के जल का संग्रह करने की अपनी अनोखी परंपरा का, उसके जस का कभी ढोल नहीं बजाया । आज देश के लगभग सभी छोटे-बड़े शहर, अनेक गांव, प्रदेश की राजधानियां और तो और देश की राजधानी तक खूब अच्छी वर्षा के बाद भी पानी जुटाने के मामले में बिलकुल कंगाल हो रही है । इससे पहले कि देश पानी के मामले में बिलकुल 'ऊंचा' सुनने लगे, सूखे माने गए इस हिस्से राजस्थान में, मरुभूमि में फली-फूली जल संग्रह की भव्य परंपरा का जसढोल बजना ही चाहिए। पधारो म्हारे देस ।