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( २ ) सौना सज्जन साधु जन,टूटि जुरै सो बार ।
दुर्जन कुम्भ कुंमार का एकै धका दरार ॥
( ३ )
मूरख से क्या बोलिये सठ से कहाँ बसाय ।
पाहन में क्या मारिये चोखा ती र नसाय ॥
( ४ ) लिखा लिखी की है नही देखा देखि की बात । दूल्हा दुलहन मिलि गये फिकी पडी बरात ॥ इन साखियो मे कल्पना औचित्यपूर्ण प्रतीत होती है । आचायँ राम्चन्द्र शुक्ल ने भाव समन्वित कल्पना को सच्ची कवि कल्पना माना है । सच्ची कल्पना वही है जो अन्तस के शुद्ध भावो को जाग्रुत कर दे तथा तत्सम्वन्धित भावो को पूगांतथा व्यंञित कर दे । सन्तो कि कल्पना अनुभुति और भावुकता के आधार पर सजित है, इसलिए वह प्रभावित करने की शक्ति और भाद-व्यंजकता से सम्पन्न है । उनकी कल्पना और वण्यं विषय जन जीदन से ग्रहणा किए गए है ।इसलिए उनमे भाव व्यजक्ता है । कबीर की भाव व्यंजकपूर्ण कतिपय उदाहरण यहाँ दिये जाते हैं । ( १ )
माली श्रावत देखकर कलियन करी पुकार ।
फुले फुले चुन लिए काल्हि हमारी बार ॥
( २ ) पानी केरी बुढबुहबुढा श्रस मानुस की जात ।
देखत ही छिप जायगा ज्यों तारा परभात ॥
साहि्व तुमहि दयाल हौ , तुम लगि मेरी दोर ।
जैसे काग जहाज को , सूभे श्रोर न ठौर ॥
इन साखियो मे नश्वरता तथा आत्म समर्पण का भाव व्यजित हो उठता है । यही है कवि की कल्पना की सफलता । कबीर की कल्पना शिक्षित अशिक्षित को प्रभावित करने मे समर्थ है ।
मानव के ह्रुदय एव मस्तिप्क मे ऐसी अनेक बाते जन्म प्रहण करती रहती है । जिनकी अभिव्यक्ति वह सामान्यता व्यवहत भाषा के मध्यम से नही कर सकता है । ऐसी ह्र्दयानुभुति विम्त्रो या संकेतो द्वारा भी नहीं अभिव्यक्त्त हो सकती है । इसी