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रस का अंग]

मैमंता तिरा नांचरै, सालै चिता सनेह। बारि जु धांध्या प्रेम कै, डऻरि रह्या सिरि पेह॥ संदर्भ - परमऻत्मऻ प्रेमी को अपने शरीर क ध्यान नहीं रहता है।

भावार्थ -- जिस प्रकार मदमस्त हऻथी एक तिनका भी ग्रहन नहीं करतऻ है उसी प्रकार साधक भी खान पान की सुधि भुलऻकर पॽम की अग्नी मे अपने वरोर को तपाता है और जिस प्रकार मदमस्त हाथी दरवाजे पर बंधा हुआ अपने सिर पर मिट्टी डालता रहता है उसी प्रकार साधक भी अपने शरीर का ध्यान न रखकर अहं को भावना का त्याग कर सिर पर मिट्टी आदि धारण कर लेतऻ है।

शब्दार्थ - मैमंता = मगमस्त हाथी। तिण = तृण

मैमंता अविघत रता, अकल्प आसऻ जीति । राम आमलि माता रहै, जीवत मुकति अतीति॥

संदर्भ -- मद मस्त साधक अपने जीवन काल मे मुक्ति प्राप्त कर लेता है। भावार्थ -- मदमस्त साधक अपनी अकल्पनीय आशाओ पर विजय प्राप्त करके परमात्मा के प्रेम मे तल्लीन रहता है। वह राम के प्रेमामृत मे इस तरह सरोवार रहता है कि जीवित अवस्था मै ही उसे जीवन से मुक्ति मिल जाती है।

शब्दार्थ -- अकलप = अकल्पनीय

जिहि सिर घड़ न डूबता, अब मैगल मलिम्लिन्हाड। देवल बूड़ऻ क्लस सूॅ, पंपि तिसाई जाई॥

संदर्भ -- भचित वे बढने पर आत्मऻ की प्यरा भी सत्त बढती चलती हे। भावार्थ -- जिस भक्ति के तालाब मे मन रूपी घढ़े डूबने पर भी पानी नही था। उसी मे अब भक्ति के बढ जाने से मग मस्त साधक मलमल कर स्नान करता है। अब उसमे इतना अधिक जल हो गया है मम्पण संसार उन भक्ति सागर मे डूब गया है किन्तु आत्मारूपी पक़ पीते पीते नही वधाता।

शब्दार्थ -- मैगल = मदमस्त हाथी, मन । देवन = संसऻर ।

सबै रसऻंइण मे किया, हरिसा और न कोइ। तिल एक घट मे सघर, तो सब कन्चन होई॥

संदर्भ -- प्रख रम वी समता करने वाला संसार का अन्य कोई भी रस नही है