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स्वयं भी नहीं चाहते थे कि शब्द-प्रमाणकी दुहाई देकर हम उनकी बातें जैसीकी वैसी ग्रहण करें।

'हिन्द स्वराज्य' की प्रस्तावनामें गांधीजीने स्वयं लिखा है कि व्यक्तिश: उनका सारा प्रयत्न ‘हिन्द स्वराज्य' में बताये हुए आध्यात्मिक स्वराज्यकी स्थापना करनेके लिए ही है। लेकिन उन्होंने भारतमें अनेक साथियोंकी मददसे स्वराज्यका जो आन्दोलन चलाया, कांग्रेसके जैसी राजनीतिक राष्ट्रीय संस्थाका मार्गदर्शन किया, वह उनकी प्रवृत्ति पार्लियामेन्टरी स्वराज्य (Parliamentary Swarajya)के लिए ही थी।

स्वराज्यके लिए अन्यायका, शोषणका और परदेशी सरकारका विरोध करनेमें अहिंसाका सहारा लिया जाय, इतना एक ही आग्रह उन्होंने रखा है। इसलिए भारतकी स्वराज्य-प्रवृत्तिका अर्थ उनकी इस वामनमूर्ति पुस्तक ‘हिन्द स्वराज्य' से न किया जाय।

गांधीजीकी यह चेतावनी कांग्रेसके स्वराज्य-आन्दोलनका विपर्यास करनेवालोंके लिए थी। आज जो लोग भारतका स्वराज्य चला रहे हैं, उनके बचावमें भी यह सूचना काम आ सकती है। भारतके राष्ट्रीय विकासका दिन-रात चिंतन करनेवाले चिंतक और नेता भी कह सकते हैं कि हमारे सिर पर 'हिन्द स्वराज्य’ के आदर्शका बोझा गांधीजीने नहीं रखा था।

लेकिन अगर गांधीजीकी बात सही है और भारतका और दुनियाका भला ‘हिन्द स्वराज्य’ में प्रतिबिम्बित सांस्कृतिक आदर्शसे ही होनेवाला है, तो इसके चिंतनका, नव-ग्रथनका और आचरणका भार किसीके सिर पर तो होना ही चाहिये।

मैंने एक दफे गांधीजीसे कहा था कि "आपने अपनी स्वराज्यसेवाके प्रारम्भमें 'हिन्द स्वराज्य' नामक जो पुस्तक लिखी उसमें आपके मौलिक विचार हैं, तो भी शंका होती है कि वे रस्किन, थोरो, एडवर्ड कारपेन्टर, टेलर, मैक्स नार्डू आदि लोगोंक चिंतनसे प्रभावित हैं। इन लोगोंने आधुनिक सभ्यताके दोष दिखाये हैं। विश्व-बंधुत्वकी बुनियाद पर स्थापित