संपादक : आप धर्म पर गलत आरोप[१] लगाते हैं। पाखंड तो सब धर्मोंमें है। जहाँ सूरज है वहाँ अंधेरा रहता ही है। परछाई हरएक चीजके साथ जुड़ी रहती है। धार्मिक ठगोंको आप दुनियवी ठगोंसे अच्छे पायेंगे। सभ्यतामें जो पाखंड मैं आपको बता चुका हूँ, वैसा पाखंड धर्ममें मैंने कभी नहीं देखा।
पाठक : यह कैसे कहा जा सकता है? धर्मके नाम पर हिन्दू-मुसलमान लड़े, धर्मके नाम पर ईसाइयोंमें बड़े बड़े युद्ध हुए। धर्मके नाम पर हजारों बेगुनाह लोग मारे गये, उन्हें जला दिया गया, उन पर बड़ी बड़ी मुसीबतें गुजारी गई। यह तो सभ्यतासे बदतर ही माना जायगा।
संपादक : तो मैं कहूँगा कि यह सब सभ्यताके दुखसे ज्यादा बरदाश्त हो सकने जैसा है। आपने जो कुछ कहा वह पाखंड है, ऐसा सब लोग समझते हैं। इसलिए पाखंडमें फँसे हुए लोग मर गए कि सारा सवाल हल हो गया। जहाँ भोले लोग हैं वहाँ ऐसा ही चलता रहेगा। लेकिन उसका असर हमेशाके लिए बुरा नहीं रहता। सभ्यताकी होलीमें जो लोग जल मरे हैं, उनकी तो कोई हद ही नहीं है। उसकी खूबी यह है कि लोग उसे अच्छा मानकर उसमें कूद पड़ते हैं। फिर वे न तो रहते दीनके और न रहते दुनियाके। वे सच बातको बिलकुल भूल जाते हैं। सभ्यता चूहेकी तरह फूंककर काटती है। उसका असर जब हम जानेंगे तब पुराने वहम मुकाबलेमें हमें मीठे लगेंगे। मेरा कहना यह नहीं कि हमें उन वहमोंको कायम रखना चाहिये। नहीं, उनके ख़िलाफ तो हम लड़ेंगे ही; लेकिन वह लड़ाई धर्मको भूल कर नहीं लड़ी जायगी, बल्कि सही तौर पर धर्मको समझकर और उसकी रक्षा करके लड़ी जायेगी।
पाठक : तब तो आप यह भी कहेंगे कि अंग्रेजोंने हिन्दुस्तानमें शान्तिका जो सुख हमें दिया है वह बेकार है।
संपादक : आप भले शांति देखते हों, पर मैं तो शान्तिका सुख नहीं देखता।
पाठक : तब तो ठग, पिंडारी, भील वगैरा देशमें जो त्रास[२] गुजारते थे उसमें आपके ख़यालसे कोई बुराई नहीं थी?