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सभ्यताका दर्शन


तोपके एक गोलेसे हजारों जानें ली जा सकती हैं। यह सभ्यताकी निशानी है। पहले लोग खुली हवामें अपनेको ठीक लगे उतना काम स्वतन्त्रतासे करते थे। अब हजारों आदमी अपने गुज़ारेके लिए इकट्ठा होकर बड़े कारखानोंमें या खानोंमें काम करते हैं। उनकी हालत जानवरसे भी बदतर हो गई है। उन्हें सीसे वगैराके कारखानोंमें जानको जोखिममें डालकर काम करना पड़ता है। इसका लाभ पैसेदार लोगोंको मिलता है। पहले लोगोंको मार-पीट कर गुलाम बनाया जाता था; आज लोगोंको पैसेका और भोग[१] का लालच देकर गुलाम बनाया जाता है। पहले जैसे रोग नहीं थे वैसे रोग आज लोगोंमें पैदा हो गये हैं और उसके साथ डॉक्टर खोज करने लगे हैं कि ये रोग कैसे मिटाये जायं। ऐसा करनेसे अस्पताल बढ़े हैं। यह सभ्यताकी निशानी मानी जाती है। पहले लोग पत्र लिखते थे तब खास क़ासिद उसे ले जाता था और उसके लिए काफी खर्च लगता था। आज मुझे किसीको गालियाँ देने के लिए पत्र लिखना हो, तो एक पैसेमें मैं गालियाँ दे सकता हूँ, किसीको मुझे मुबारकबाद देना हो तो भी मैं उसी दाममें पत्र भेज सकता हूँ। यह सभ्यताकी निशानी है। पहले लोग दो या तीन बार खाते थे और वह भी खुद हाथसे पकाई हुई रोटी और थोड़ी तरकारी। अब तो हर दो घंटे पर खाना चाहिये, और वह यहाँ तक कि लोगोंको खानेसे फुरसत ही नहीं मिलती। और कितना कहूँ? यह सब आप किसी भी पुस्तकमें पढ़ सकते हैं। ये सब सभ्यताकी सच्ची निशानियाँ मानी जाती हैं। और अगर कोई भी इससे भिन्न बात समझाये, तो वह भोला है ऐसा निश्चय[२] ही मानिये। सभ्यता तो मैंने जो बतायी वही मानी जाती है। उसमें नीति या धर्मकी बात ही नहीं है। सभ्यताके हिमायती साफ कहते हैं कि उनका काम लोगोंको धर्म सिखानेका नहीं है। धर्म तो ढोंग है, ऐसा कुछ लोग मानते हैं। और कुछ लोग धर्मका दम्भ करते हैं, नीतिकी बातें भी करते हैं। फिर भी मैं आपसे बीस बरसके अनुभव[३] के बाद कहता हूँ कि नीतिके नामसे अनीति सिखलाई जाती है। ऊपरकी बातोंमें नीति हो ही नहीं सकती, यह कोई बच्चा भी समझ सकता है। शरीरका सुख कैसे मिले, यही

  1. मज़ा, आनन्द।
  2. खसूसन।
  3. तजरबा।