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उनसे इसे पढ़नेकी मैं जरूर सिफ़ारिश करूंगा। इसमें से मैंने सिर्फ एक ही शब्द-और वह एक महिला मित्रकी इच्छाको मानकर-रद किया है; इसके सिवा और कोई फेरबदल मैंने इसमें नहीं किया है।

इस किताबमें ‘आधुनिक सभ्यता' की सख्त टीका की गई है। यह १९०९ में लिखी गई थी। इसमें मेरी जो मान्यता प्रगट की गई है, वह आज पहलेसे ज्यादा मजबूत बनी है। मुझे लगता है कि अगर हिन्दुस्तान ‘आधुनिक सभ्यता' का त्याग करेगा, तो उससे उसे लाभ ही होगा।

लेकिन मैं पाठकोंको एक चेतावनी देना चाहता हूँ। वे ऐसा न मान लें कि इस किताबमें जिस स्वराज्यकी तसवीर मैंने खड़ी की है, वैसा स्वराज्य कायम करनेके लिए आज मेरी कोशिशें चल रही हैं। मैं जानता हूँ कि अभी हिन्दुस्तान उसके लिए तैयार नहीं है। ऐसा कहनेमें शायद ढिठाईका भास हो, लेकिन मुझे तो पक्का विश्वास है कि इसमें जिस स्वराज्यकी तसवीर मैंने खींची है, वैसा स्वराज्य पानेकी मेरी निजी कोशिश ज़रूर चल रही है। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि आज मेरी सामूहिक[१] प्रवृत्तिका ध्येय तो हिन्दुस्तानकी प्रजाकी इच्छाके मुताबिक पार्लियामेन्टरी ढंगका स्वराज्य पाना है। रेलों या अस्पतालोंका नाश करनेका ध्येय मेरे मनमें नहीं है, अगरचे उनका कुदरती नाश हो तो मैं ज़रूर उसका स्वागत करूंगा। रेल या अस्पताल दोनोंमें से एक भी ऊंची और बिलकुल शुद्ध संस्कृतिकी सूचक (चिह्न) नहीं है। ज्यादासे ज्यादा इतना ही कह सकते हैं कि यह एक ऐसी बुराई है, जो टाली नहीं जा सकती। दोनोंमें से एक भी हमारे राष्ट्रकी नैतिक ऊंचाईमें एक इंचकी भी बढ़ती नहीं करती। उसी तरह मैं अदालतोंके स्थायी[२] नाशका ध्येय मनमें नहीं रखता, हालांकि ऐसा नतीजा आये तो मुझे अवश्य बहुत अच्छा लगेगा। यंत्रों और मिलोके नाशके लिए तो मैं उससे भी कम कोशिश करता हूँ। उसके लिए लोगोंकी आज जो तैयारी है उससे कहीं ज्यादा सादगी और त्यागकी ज़रूरत रहती है।

  1. आम।
  2. कायमी।