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'हिन्द स्वराज्य' के बारे में

मेरी इस छोटीसी किताबकी ओर विशाल जनसंख्याका ध्यान खिंच रहा है, यह सचमुच ही मेरा सौभाग्य है। यह मूल तो गुजरातीमें लिखी गई है। इसका जीवन-क्रम अजीब है। यह पहले-पहल दक्षिण अफ्रीकामें छपनेवाले साप्ताहिक 'इण्डियन ओपीनियन' में प्रगट हुई थी। १९०९में लन्दनसे दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए जहाज पर हिन्दुस्तानियोंके हिंसावादी पंथको और उसी विचारधारावाले दक्षिण अफ्रीकाके एक वर्गको दिये गये जवाबके रूपमें यह लिखी गई थी। लन्दनमें रहनेवाले हरएक नामी अराजकतावादी हिन्दुस्तानीके संपर्कमें मैं आया था। उनकी शूरवीरता[१] का असर मेरे मन पर पड़ा था, लेकिन मुझे लगा कि उनके जोशने उलटी राह पकड़ ली है। मुझे लगा कि हिंसा हिन्दुस्तानके दुखोंका इलाज नहीं है, और उसकी संस्कृति[२] को देखते हुए उसे आत्मरक्षा[३] के लिए कोई अलग और ऊंचे प्रकारका शस्र काममें लाना चाहिये। दक्षिण अफ्रीकाका सत्याग्रह उस वक्त मुश्किलसे दो सालका बच्चा था। लेकिन उसका विकास इतना हो चुका था कि उसके बारे में कुछ हद तक आत्म-विश्वाससे लिखनेकी मैंने हिम्मत की थी। मेरी वह लेखमाला पाठकवर्गको इतनी पसन्द आयी कि वह किताबके रूप में प्रकाशित की गई। हिन्दुस्तानमें उसकी ओर लोगोंका कुछ ध्यान गया। बम्बई सरकारने उसके प्रचारकी मनाही कर दी। उसका जवाब मैंने किताबका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित करके दिया। मुझे लगा कि अपने अंग्रेज मित्रोंको इस किताब के विचारोंसे वाकिफ करना उनके प्रति[४] मेरा फ़र्ज है।

मेरी रायमें यह किताब ऐसी है कि यह बालकके हाथमें भी दी जा सकती है। यह द्वेषधर्मकी जगह प्रेमधर्म सिखाती है; हिंसाकी जगह आत्मबलिदानको रखती है; पशुबलसे टक्कर लेनेके लिए आत्मबलको खड़ा करती है। इसकी अनेक आवृत्तियां हो चुकी हैं; और जिन्हें इसे पढ़नेकी परवाह है

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  1. बहादुरी।
  2. तमद्दुन।
  3. अपना बचाव।
  4. तरफ़।