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हिन्द स्वराज्य

संपादक : सचमुच हमारे देव (मूर्तियाँ) भी जर्मनीके यंत्रोंमें बनकर आते हैं; तो फिर दियासलाई या आलपिनसे लेकर काँचके झाड़-फानूसकी तो बात ही क्या? मेरा अपना जवाब तो एक ही है। जब ये सब चीजें यंत्रसे नहीं बनती थीं तब हिन्दुस्तान क्या करता था? वैसा ही वह आज भी कर सकता है। जब तक हम हाथसे आलपिन नहीं बनायेंगे तब तक उसके बिना हम अपना काम चला लेंगे। झाड़-फानूसको आग लगा देंगे। मिट्टीके दीयेमें तेल डालकर और हमारे खेतमें पैदा हुई रुईकी बत्ती बना कर दीया जलायेंगे। ऐसा करनेसे हमारी आँखें (खराब होनेसे) बचेंगी, पैसे बचेंगे और हम स्वदेशी रहेंगे, बनेंगे और स्वराज्यकी धूनी जगायेंगे।

यह सारा काम सब लोग एक ही समयमें करेंगे या एक ही समयमें कुछ लोग यंत्रकी सब चीजें छोड़ देंगे, यह संभव नहीं है। लेकिन अगर यह विचार सही होगा, तो हम हमेशा शोध-खोज़ करते रहेंगे और हमेशा थोड़ी-थोड़ी चीजें छोड़ते जायेंगे। अगर हम ऐसा करेंगे तो दूसरे लोग भी ऐसा करेंगे। पहले तो यह विचार जड़ पकड़े यह ज़रूरी है; बादमें उसके मुताबिक काम होगा। पहले एक ही आदमी करेगा, फिर दस, फिर सौ-यों नारियलकी कहानीकी तरह लोग बढ़ते ही जायेंगे। बड़े लोग जो काम करते हैं, उसे छोटे भी करते हैं और करेंगे। समझें तो बात छोटी और सरल है। आपको और मुझे दूसरोंके करनेकी राह नहीं देखना है। हम तो ज्यों ही समझ लें त्यों ही उसे शुरू कर दें। जो नहीं करेगा वह खोयेगा। समझते हुए भी जो नहीं करेगा, वह निरा दंभी कहलायेगा।

पाठक : ट्रामगाड़ी और बिजलीकी बत्तीका क्या होगा?

संपादक : यह सवाल आपने बहुत देरसे किया। इस सवालमें अब कोई जान नहीं रही। रेलने अगर हमारा नाश किया है, तो क्या ट्राम नहीं करती? यंत्र तो साँपका ऐसा बिल है, जिसमें एक नहीं बल्कि सैकड़ों साँप होते हैं। एकके पीछे दूसरा लगा ही रहता है। जहाँ यंत्र होगे वहाँ बड़े शहर होंगे। जहाँ बड़े शहर होंगे वहाँ ट्रामगाड़ी और रेलगाड़ी होगी। वहीं बिजलीकी बत्तीकी ज़रूरत रहती है। आप जानते होंगे कि विलायतमें भी देहातोंमें बिजलीकी