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कहते है। पहले पहल मशेनब्रोक ( Maschenbrock ) ने धातुशलाकाओं का प्रयोग उष्णमान (ताप) नापने के लिये किया था। उसी के लिये इस शब्द का प्रयोग भी किया था। उसी के लिये इस शब्ध का प्रयोग भी किया था। कई एक धातुओं तथा चारों को भट्टी में छोड देने से उसके पिघलने से उनका उष्णामान किसी आशंतक आत हो सकता है। प्रिन्सेपने सोने, चान्दि तथा प्लातिनम को भिन्न भिन्न अम्शों में मिलाकर कई ऐसी मिश्रधातुओं को आविष्कार किया जिसको भट्टी में छोडने से १५४० से १७७५ तक का उष्णमान जाना जा सकता था। बिलकुल ठीक माप करने में केवल २५ से २० तक अन्तर पड सकता था। जिस भट्टिका ताप जानना हो उसमें इन्हीं मिश्र धातुओं के गोले छ्होड देने चाहिये। प्रत्येक गोला किसी खास अंशके उष्णमान पर पिघलता है। अतः जो गोला पिघला जाये उसी से उसके उष्णमान की स्थूल कल्पना हो जाती है। बहुत से का जिनका द्रवणंक ( Melting Point ) विदित था, उनसे भी उष्णमान मापने का काम कार्नेली तथा विलयम्स लिया करते थे। चीनी के बर्तन के कारखानों में भट्टी का उष्णमान (ताप) जानने की बहुत आवश्यकता रह्ती है। उनमें सेजर के कण (चिकनी मट्टी के कण) का बहुधा उपयोग किया जाता है। इनके पिघलने से भट्टी का तापक्रम चिदित हो जाता था।

अग्नि मित्र- यह शुंग-वंशका द्वितीय गजा था। इसके पिता का नाम पुष्प-मित्र और पुत्र का नाम सुज्येष्ठ था। पुष्प-मित्र पतञलि (इस के १४० वर्ष पूर्व) समकालिन राजा था। पतञलि की पुस्तकों में राजा पुष्प-मित्र का उल्लेख है।

अग्निवेश्य-(१) एक ब्रह्मर्षि। (२) सुर्यव्ंशी नरिष्यन्त राजा के कुल में उत्पन्न राजा देवदत्ता का पुत्र। इसके दूसरे नाम जातुकरार्या और कानीन हैं। तपोबल से यह ब्राह्म्ण हो गया था। इसके पुत्र का नाम अग्नि-वेश्यायन था। (३) अगस्त्य-ऋषि का एक शिष्य। इससे ही द्रोणाचार्य ने धनुर्वेद की शिक्षा पाई थी, और ब्रहमशिर नाम का अस्त्र प्राप्त किया था। (४) महाभारत में इसी नाम से प्रसिध्द अनेक राजा पाण्डव की ओर से युध्द कर रहे थे।

अग्निशिर-काम्यक बन के उत्तर में एक तीर्थ। यहाँ पर संजय के पुत्र राजा ने 'शन्याक्षेप' नामक यश किया था। उसी प्रकार राजा भरत ने यहाँं पर १४ यक्ष किए थे। ऐसी कथा महाभारत में भी मिलती है। (भारत वन पर्व)

अग्नि ष्टोम- (१) चक्षुर्मनुस नडवल मे ३१२ पुत्रों में से सात्वें पुत्र का नाम। दूसरे ग्रन्थों में इसी का नाम अग्नितुष्ट मिलता है। (२) एक यक्ष विशेष। यक्ष तीम प्रकार के होते हैं- (१) हट्टि, पशु तथा सामयाग। यह सोम याग का एक प्रधान अंग हैं। इसकी भिन्न २ क्रियायें नीचे दी जाति हैं- दीक्षा- इसकी दीक्षा वसन्त ऋतु में पूर्णिमा अमावस्या अथवा प्रतिपदा को लेनी चाहिये। अनुष्टान- गाईपत्य में दर्भासन पर स्थित होकर यजमान पत्नि इसका प्रधान सन्कल्प लेती है, और यजमान प्रधान अधिकारी तथा ऋत्विजों को निमंत्रित करता है।

ऋत्विक निमन्त्रण तथा स्वागत- इन १६, १७ सदस्यों सहित प्रधान के आने पर यजमान मधुपर्क विधि की ओजना करता है। अग्नि समारोष तथा यज्ञ भूमि प्रवेश- यजमान सपत्नीक यक्ष भूमि में प्रवेश करते हैं। प्राग्वंश मन्ड्प- यक्ष भूमि में यह मण्ड्प तय्यार किया जाता है। पूर्व पश्चिम की ओर यह १६ पद होता है और उत्तर दक्षिण की ओर ११ पद। चारों दिशाओं और ईशान्य में एक एक एक द्वार होना चाहिये। अवशिष्ट तीन कोनों में तीन मोखे होने चाहिये। मण्डप चारों ओर से घिरा होना चाहिये। अग्नि स्थापना- प्राग्वंश मण्डप में निर्माणित कुण्श और वेदी में अग्नि का आह्वान किया जाता है।

दीक्षाणीयेष्टि- जिन नियमों का यक्षाग्म्भ से अन्त तक पालन किया जाता है वही दीक्षा कहलाती है। देवताओं के प्रीत्यर्थ पुरोडाशका हवन किया जाता है। हवन के पश्चात उत्तर दिशा में बैठकर यजमान पत्नि भी स्नान करती है। तब दोनों नये वस्त्र पहिन कर यक्ष कर्म में प्रविष्ट होते है।

प्राथमिक येष्टि- दीक्षणियेष्टि के दूसरे दिन यह किया जाता है। पथ्य स्वस्ति, अग्नि, सोम, सविता, अदिति इत्यादि प्रधान देवता है। अदिति के अतिरिक्त सब का हवन घीसे किया जाता है। अदिति का होम कुण्ड मध्य में होता है और हवन भाव से किया जाता है।