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है इस कथामें बहुत कुछ अत्युक्ति हो, किन्तु अफजलखाँके अन्य व्यवहारोंको देखते हुए इतना तो निश्चय पूर्वक कहा ही जा सकता है कि वह बड़ा कठोर तथा निर्दयी था। महाराष्ट्र देशमें अफजलखाँके विषयमें और भी अनेक कथायें प्रचलित हैं। जिस समय वह शिवाजीसे युद्ध करनेके लिये निकला था, उस समय बराबर अपशकुन हो रहे थे। बीजापुर दरबारमें "फतह लश्कर"नामक एक हाथी था। उसके विषयमें यह भावना थी कि जिस युद्धमें वह जाता था वहाँ विजय अवश्य होती थी किन्तु जब अफजलखाँ युद्धके लिये जानेको था तो उसकी अकस्मात् मृत्यु ही हो गई। जब अभागा अफजल काजीसे युद्धमें जनेके लिये विदा माँगने गया तो कजीको अफजलखाँका शरीर बराबर बिना सिरका ही देख पड़ता रहा। यह भी आपत्तिसूचक था। इन सबके अतरिक्त जब शिवाजीसे भेंट करने वह रडतोंडीकी घाटीमें से जा रहा था, उस समय भी अचानक उसका वह हाथी ,जिसपर उसका झण्डा फहरा रहा था,अड़कर खड़ा हो गया और किसी भाँति आगे बढ़ता ही नहीं था। इसी भाँति अफजलखाँको ऐसी ही अनेक दैविक सूचना मिल रही थीं,जिससे उसकी पराजय निश्चित सी देख पड़ती थी। यह तो नहीं कहा जा सकता कि इन सबका क्या प्रभाव अफजलके हृदय पर पड़ा,किन्तु इतना तो निश्चय ही है कि इन सबके होते हुए भी वह अपने निश्चय पर दृढ़ था और अन्त तक उसने आशा तथा साहसको हाथसे जाने नहीं दिया । यद्यपि उपरोक्त दन्त-कथाओंका ऐतिहासिक दृष्टिसे विशेष कुछ भी महत्व नहीं है,किन्तु इतना तो परिणाम निकाला ही जा सकता है कि अफजल अपने समयका सामान , पुरुष नहीं था और महाराष्ट्र देशमें इसका पर्याप्त प्रभाव था। यह शिवाजीका ही साहस और कौशल था कि अफजल ऐसे बीर ,धूर्त तथा प्रभावशाली व्यक्ति का इतनी सरलतासे नाश कर डाला। [संदर्भग्रन्थ;-शेड़गाँव का बखर ,चिटणीसबरवर,अफजलखाँका पांवाड़ा, शिवाजी दिग्विजय, अफजलखाँ का बद]। अफजलगढ़-यह संयुक्तप्रान्तमें एक छोटा सा गाँव है। यह बिजनौर जिलेकी नगीना तहसीलमें है। बिजनौर शहरसे पूर्वकी ओर ३४ मीलकी दूरी पर यह बसा हुआ है। यह उत्तर अक्षांश २६'२४' और पूर्व रेखांश ७८४७ के बीचमें स्थित है। यहाँकी जनसंख्या लगभग आठ हजार है। ऐसा अनुमान किया जाता है कि १८वीं शताब्दीके मध्यमें अफजलखाँ नामक एक व्यक्ति ने इस नगरको बसाया था। यह गाँव बहुत नीचे एक गड्ढेमें बसा हुआ है। चारों ओर दलदल होने के कारण यहाँकी आबहवा स्वास्थ्यके लिये बड़ी हानिकर है। यहाँकी आय लगभग १२०० के है। इसका शासन प्रबन्ध १८५६ ई० के २०वें नियम के अनुसार किया जाता है। यहाँ एक स्कूल है। यहाँके मुसलमान जुलाहे सूती कपड़ा बुनकर तय्यार करते हैं। अफराडीटी- जिस भाँति भारतमें अनेक देवी देवता माने जाते हैँ,उसी भाँति यह भी पश्चिमीय देशों को एक प्रसिध्द देवी है। इसका दूसरा नाम वीनस भी है। भिन्न भिन्न पाश्चात्य देशोँमें इसके भिन्न भिन्न नाम हैं,तथा इसके विषयमें भिन्न भिन्न कल्पनायें तथा कथायें हैं।'अफराडीटी'नामके अर्थ पर यदि ध्यान दिया जाये तो इसकी उत्पत्ति 'समुद्रके फेन'से कह सकते हैं। यदि हेलिअडके वर्णन पर भी ध्यान दिया जाये तो भी इसकी उत्पत्ति जलसे ही सम्बन्ध रखती है। उसके वर्णनके अनुसार यह सिथिराके चारों ओर के जल में पहले पहले देख पड़ती है,तदन्तर यह साइप्रस द्वीपमें प्रवेश करती है। अफराडीटीके विषयमें निम्नलिखित कल्पनायें बहुत अंश तक निश्चित सी हैं -(१)यूनानके देवताओँमें पहले इसका स्थान नहीं देख पड़ता। इसके विषयकी अनेक कल्पनाओंका जन्म एशिया में ही देख पड़ता हैं,क्योंकि जिन भी देवी देवताओंका इसके साथ सम्बन्ध जोड़ा जाता है वे सब एशियाके ही हैं।(२)हेरोडेटसके मतानुसार आस्कोलनसे इसकी पूजा साइप्रस इत्यादि स्थानोँमें फैली है,क्योंकि वहाँ ही एक देवी का सबसे प्राचीन मन्दिर मिलता है। इसीको यूनानवाले 'अफ्राडीटी युरेनिया' अरब वाले 'अलिट्टा' असीरिया वाले 'मिलिट्टा' और फोनेशियन 'अस्ट्राटे'नाम देकर पूजा करने लगे थे। इसका सम्बन्ध नैसर्गिक सुन्दरता ,आकाश के ग्रह इत्यादि तथा मानव प्रेमसे जोड़ा जाता है। अर्थात भारत की उषादेवी की भाँति प्रकृति, रतिकी भाँति 'प्रेम' तथा ग्रहोंका सन्चालन इसीके प्रेभाव से होता है। फोनेशियामें इसको सामुद्रिक व्यापार की भी देवी माना है। बहुत सम्भव है कि जिस भाँति सभ्यताके अनेक अंश युनान