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अप्पा शास्त्री

उसे बुलाने का प्रयत्न किया,किंतु उस अभिमानिनी चल्लाल कुमारी ने जैन मन्दिर में प्रवेश करने से इन्कार किया अन्त में ये जैन वस्त्र,वेश तथा चिन्ह का त्याग कर अपने गाँव पहुँचे और अपनी बहन से क्षमा याचना की।थोडे ही दिनों में ये फिर भले चंगे हो गये।अब ये शिव के अनन्य भक्त हो गये।

    जैनी राजा पल्लव को यह मालुम होने पर उसने अप्पर को अनेक कष्ट दिया।किंतु वह अपने धर्म में दृढ बना रहा। अन्त में भयभीत होकर राजा ने स्वयं शिवदीक्षा इनसे ग्रहण की।तदनंतर इन्होंने अनेक यात्रा की और अनेक समकालीन प्रसिध्द साधुओं तथा विद्वानों से भेंट की।उन सबों ने इनका उचित सम्मान किया। तत्कालीन प्रसिध्द विद्वान् संबन्दर जिसने पाराज्य के राजा को जैन धर्म से फिर स्वधर्म में प्रवेश कराया था,वह इन्हें "अप्पर" अर्थात् 'पिता'कह कर सम्बोधित करता था।इसी नाम से आगे चलकर यह प्रसिध्द होगये । इन्होंने अपने भ्रमण काल में अनेक स्तुति तथा स्तोत्र की रचना की । अंत में यह पुं पुं कलूर में जाकर बस गये।यह अपने पास म्ंदिरों की घास खोदने के लिए एक कुदाली सदा रखते थे।इसी कारण आज भी दक्षिण भारत में पाई जानेवाली इनकी मूर्तियों में'कुदाली'का चिन्ह अंकित देख पडता है। यह एक किसान कुलके थे,अत:इनके काव्य तथा लेखों मे साधारण किसानो के चरित्र का सुन्दर चित्रण देख पडता है|इनकी लिखी हुई लगभग तीन सौ कवितायें अब तक मिलती है। अन्य तामिल कवियों की भाँति इनकी कविता में स्थान-स्थान पर शिवनृत्य का वर्णन आता है।उस समय दक्षिण भारत में 'आस्तिक्यवाद' नाम से एक नये ही पंथ का प्रादुर्भाव  हो रहा था। इस पंथ में इनकी कविताओं से बडी सहायता मिलती थी। इनकी कविताओं में धर्म की अनेक सुगम तथा रहस्यमय बातें भरी हुई है। अपने गम्भीर और व्यापक भाव इन्होंने अपनी कविताओं द्वारा ही जनसाधारण में फैलाया था।

अप्पा शास्त्री- इनके विषय में विशेष कुछ निश्चय्रपूर्वक पता नहीं है। ये एक उत्तम लेखक थे और इनकी लिखी हुई अनेक पुस्तकें आज भी सर्वमान्य समझी जाती है। इन्होंने 'लवलीपरिणय' तथा 'सरस्वतादर्श' नामक नाटक लिखे। 'अप्पा शास्त्री वादार्थ' तथा 'चिल्लुर वादार्थ' भी इन्हीं के लिखे हुए समझे जाते हैं।

अप्पिया-वाया-(Appia Via) यह प्राचीन रोम की सबसे बडी और मुख्य सडक थी।रोम नगर से यह बारिड्जियम तक चली गई है। यह ३५० मील लम्बी है|इसको पहले पहल ई० पू०३१२ में अप्पियस क्वाडियस ने बनवाना आरम्भ किया था।किस किस समय इसमें वृद्धि होती गई यह तो निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। किन्तु यह निश्चय अवश्य है कि ई० पू० ३० में यह पूरी हो गई। यह पक्की और बडे बडे पत्थरों से बैठाई हुई है। पटरियों को छोडकर यह १४ से १५ फीट तक चौडी है।इसका वर्णन अनेक प्रसिद्ध लेखकों ने किया है। इसको सबसे उत्तम सडक मानी है और'सडकों की रानी'(queen of road) कह कर सम्बोधित किया है।लेखों से पता चलता है कि यह ५०० से ५६५ ई० तक पूर्ण रूप से अच्छी स्थिति में थी।

अप्पियस क्वाडियस -इसको क्वाडियस के अन्तर्गत लेख में देखिये।

अप्सरा-अत्यन्त प्राचीन काल से ही, और प्राय:सभी धर्मोँ तथा जातियों में ऐसी भावनायें रही हैं कि स्वर्ग में अत्यन्त सुन्दर सुन्दर स्त्रियां हैं जो मृत्यु के उपरान्त धर्मात्माओं के भोग विलास के लिए वहाँ पर उपस्थित रहती है।इस कल्पना का प्रादुर्भाव क्यों और कैसे हुआ अथवा कहाँ से इसकी उतपत्ति हुई यह कहना तो कठिन है,किंतु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यह कल्पना सुखलोलुप मनुष्यों को संसार में स्वधर्म तथा कर्तव्यपरायण बनाने रखने के लिए ही की गई होगी। अर्थात जिस अधार पर स्वर्ग की कल्पना की गई होगी उसी पर यह कल्पना भी स्थित होगी। आज भी बहुत से मनुष्य स्वर्ग तथा नर्क के सुख तथा दुख के भय से ही कितने पुराय करते है, और पाप कामों से भय खाते है। अत:समाज के सुचारु स्न्चालन के लिए ही स्वर्ग का निर्मण हुआ होगा, और अप्सरा स्वर्गीय सुख की पूर्ति केलिए आवश्यक समझी गई होगी। अस्तु कारण्मिमांसा अथवा इनके अस्तित्व तथा तथ्यता पर विचार करना इस लेख से परे का और व्यक्तिगत विषय है।अत: यहाँ पर भारतीय अथवा अन्य देशों में जो अप्सरा-संबंधी कल्पना है उनका उल्लेख किया जाता है। भारतीय‌‌‌‌‌- इस शब्द का प्रयोग बैदिक साहित्य में भी देख पडता है। इसी के साथ साथ गान्धर्व