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भेद नहीं है, किन्तु फिर भी मेरी भक्ति चन्द्र चूड शिव पर ही जमती है।


इनके विषय में एक कथा प्रसिद्ध है कि एक बार यह एक विष्णु के मन्दिर में दर्शनार्थ गये थे, किन्तु भूलकर विष्णु-स्तुति के बदले इन्होंने शिव-स्तुति में ही निम्नांकित श्लोक पढा :- ज्ञातं प झासनस्थं, शशिधर मुकुटं, पजवक्रं त्रिनेत्रशूलम् वज्रं च खङ्ग परशु मभयदं, दक्ष भागे व हन्तम्। नागं पाशं च घंटां प्रलयहुतवहं सांकुशं वाम भागे॥। नानालंकारयुक्तं स्फटिकमणि-निभं पार्वतीशं नमामि।


इस श्लोक से विष्णु की मूर्ति अदृश्य होकर वहाँ पर शिव की मूर्ति प्रकट हो गई। ये अपने ध्यान में इतने मस्त थे कि इन्हें इसकी खबर भी नहीं थी, किन्तु जब लोगों ने इन्हें चैतन्य कर इससे सूचित किया तो इन्होंने निम्नलिखित श्लोक से विष्णु-स्तुति करके वहाँ पर फिर से विष्णुमूर्ति प्रकट कर दी :- शान्तकारं भुजग शयनं पझ नाभं सुरेशम्, विश्वाधार गगन सदृशं, मेघवर्णी शुभाद्रम। लक्ष्मीकान्तं, कमल नयनं योगभिर्ध्यान गम्यम्, बन्दे विष्णु भवभय हर सर्व लोकैक नाथम्॥


इनके विषय में ऐसी ही एक और अद्भुत कथा है कि एक बार ताताचार्य से और इनसे शास्त्रार्थ छिडा। ताताचार्य की विद्वता का डंका सर्वत्र बज रहा था, किन्तु इन्होंने बादाविवाद में उन्हें बडी सुगमता से ही परास्त कर दिया। इस पर ताताचार्य बडे क्रुद्ध हुए और जब यह शास्त्रार्थ के उपरान्त व्यंकटपतिराय के दरबार से अपने घर लौट रहे थे तो मार्ग ही में इन्हें मार डालने के लिए उन्होंने कुछ आदमी नियुक्त किये। किन्तु इसके पूर्व कि वे मनुष्य इन तक पहुँचे एक असाधारण शक्ति ने प्रकट होकर उनको मार्ग ही में नाश कर डाला, और ये सकुशल अपने स्थान पर पहुँच गये। अन्त में राजा को भी यह बात विदित हुई। उसने इन्हें अनेक पारितोषिक प्रदान किये और ताताचार्य को बहुत फटकारा। कुछ समय के पश्र्वात् इन्होंने काशी प्रयाग तथा गया की यात्रा भी की थी। वहाँ पर इनसे जगन्नाथराय की भेंट हुई। इस यात्रा से लौटकर उन्होंने अनेक पारमार्थिक विषय पर रचनायें कीं। उनमें से एक नीचे दी जाती है:- ब्रह्मै वाहं सद्धगुरोः कृपया॥ धू॥ ब्रह्मै वाहं, ब्रह्मै वाहं॥ सत्य ज्ञानानन्तधनोहं। दृश्यादृश्य मासातीतं। हेतु-विहोनं सुगम-हवंरूपं॥ ब्रह्मै ० ॥ १॥ मायाइत्रिघा जीवेश्चरयोः॥ सर्वाधारं चाधिष्ठानं ॥ सर्वातीतं सर्वातरयोः॥ सशित् सुखमय पूर्णस्वरूपं॥ ब्रह्मै ०॥ २॥ भेदाभेदोभय विवर्जितम्॥ सर्व-द्रष्टा साक्षिमयोहं॥ भगवत पादीय मिदं ज्ञानं, सूनोर्गत अज्ञानं ॥ ब्रह्मै वाहं किल सद्धगुरोः कृपया ॥ ३॥


इस पद से यह स्पष्ट देख पडता है कि भगवत्पूज्य-पाद शंकराचार्य के सिद्धान्तों पर इन्हें अटल विश्वास था। अन्तिम समय में इन्होंने काशी आकर रहने का विचार किया था किन्तु ग्रामवासियों के आग्रह के कारण ये ऐसा न कर सके और गाँव ही में रहकर भगवत भजन में अपना समय व्यतीत करने लगे। इनके पास पाँच शिवलिंग स्फटिकके थे। उसमें से इन्होंने दो तो ब्राह्मणों को, एक अपने भतीजे को, एक अपने पुत्र को दे दिया और पाँचवीं की स्थापना इन्होंने चिदाम्बरम् में कर डाली। कुछ ही समय बाद इन्होंने ६० वर्ष की अवस्था में परलोक गमन किया। (आधार ग्रन्थ कविचरित्र, अर्वाचीनकोष, आफेक्ट का कैटलाग)


अप्पर- सातवीं शताब्दी में ये एक विख्यात गूढवादी तामिल कवि हो गये हैं। इनका पूरा नाम मरुलनी कियर था। मरुलनी कियर का जन्म वल्लाल वंश में कुडलोर जिले के थिरु अमूर नामक ग्राम में हुआ था। इनकी एक बडी बहन थी। उसका विवाह एक प्रसिद्ध सूबेदार के साथ होनेवाला था, किन्तु वह विवाह होने के पूर्व ही एक युद्ध में मारा गया। माता पिता का भी देहान्त अब तक हो चुका था, अतः उसने भी अग्नि में प्रवेश कर आत्मसमर्पण का निश्चय कर डाला, किन्तु फिर अपने छोटे भाई का लालन-पालन का ध्यान आते ही अपना विचार बदल डाला। इस भांति इनका लालन-पालन इनकी बहन ही द्वारा हुआ था।


इस समय जैन धर्म का बडा जोर था। बडे होने पर इनके मन में भी आध्यात्मिक विचारों की उत्पत्ति होने लगी। यह तो निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि स्वयं ही अथवा किसी जैन भिक्षुके फेर में पडने से, किन्तु इन्होंने भी जैन धर्म स्वीकार कर लिया और इस पर इतना गम्भीर तथा गहन अध्ययन किया कि पाटलीपुत्र के मुख्य जैन संघने भी इन्हें अपना गुरू मान लिया। इनके अन्य धर्म में प्रवेश करने से इनकी भागिनी के हृदय को बडा धक्का लगा। इधर इनका जीवन पाटलीपुत्र में बडे आनन्द से कट रहा था जिससे इन्हें अपनी बहन अथवा घर की याद भी नहीं आती थी। एक बार इनको पेट में बडा सांघातिक दर्द उठा। अनेक उपचार किये गये किन्तु रोग क्रमशः बढता ही गया। अन्त में इन्हें अपनी बहन की याद आई।