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जनन पेशी एक हो प्रकार की होती है।वल्कपर्णक और दीर्घपर्णकके भित्र भित्र दो भेद होते है। (२)लघुपर्णक के प्रायः सब भेद जमीन पर पैदा होते हैं।बहूत कम दूसरे पेडोपर पैदा होता है।वे वनस्पतियां सह्याद्री पर्वतके कसलराकके जंगल में पाई जाती है। तना बिलकुल जमीन के सरपट होता है।और ऊपर शाखाऐं निकलती है।शाखा और मूल दिव्पाद होते हैं।तने पर घने पत्ते आते हैं और वे छोटे छोटे होते है।वे अधिक चौडे और उनके सिरे बहूत लम्बे होते है अन्य भागों की अपेक्षा तुरे परके पते आधी का धनें होते है।प्रत्येक पत्तेके अनुकोण में ऊपर की तरफ एक एक जनन पेशी का गुच्छा रहता है।उसका आकार मिरचाके अथवा बैगन के बीजों के समान होता है।उसके मध्य भाव में एक चीर पडकर उसके दो भाग होते है और जनन पेशी बाहर पडती है।जनन पेशी एक ही आकार ही होती है।पुरस्थाणु प्राय्ः जमीनके नीचे रहता है। कई बार उसका कुच्छ भाग ऊपर आता है और कई एक में तो वह कुल ऊपर होता है।ऊपरवाले भाग में हरिद्रव्य होता है,सबमें नहीं होता।उनके नीचे की और जडमें छोटे छोटे तंतु होते है,और ऊपर की और संयोगिक इंद्रियां होती है।पुरस्थाणुका आकार गिलासके समान होता है,और कभी कभी मूली अथवा गाजरके समान लम्बा होता है।रेतकरंडक करीब बिलकुल ही बाजूकी पेटी में गडा हुआ रहता है,और रज करो डक ऊपर रहता है।संयोगसे हुआ गर्म कुछ समय तक पुरस्थाणु पर ही बढता है और पूर्णा बढ जानेपर स्वतंत्र होता है। (२)वल्कलपर्ण वनस्पतिमें अनेक भेद होते है।ये प्रायःजमीन पर फैलनेवाली होती है।कई एक किसी के आधार पर लताके समान ऊपर जाती है।इनकी तनौकी ध्दिपाद शाखाऍं होती हैं।इनकी वृद्धी इत्यादि करीब करीब लघुपखेक सी ही हैं। इनमें महीन २ बल्कोके समान पत्ते होते हैं।ऐसे पत्तोको सामने ही दूसरे बडे तथा चौडे पत्ते आते है।प्रत्येक पत्तेके निकलनेके स्थानके समीप एक छोटा सा बिल्कुल पतला आच्छुद्न होता है।यही इस जातिका विशेष लक्षण है। तनेके जहांपर दो विभाग होते है,उस जहग से एक लम्बी अंकुरों के तन्तुके समान शाखा निकलती है और जमीन में प्रेवेश करती है। यह शाखा तनेका ही एक भेद है।इसमें पत्ते नहीं निकलते और जमीनमें प्रवेश करनेपर इसमें जडें फुडती है।मूल शाखा के तोडने पर इसमें पत्ते निकलते हैं। शाखाके सिरेके पास फुनगी निकलती है।उनमेंके प्रत्येक पत्तेके अदाकोण में एक जननपेशी का गुच्छा रहता है।जननपेशीयां दो प्राकार ही होती है।चार चार स्री जननपेशीयां एक साथ मिलकर एक २ जननपेशी में होती है।पुरुष ज्ननपेशीयां बहूत सी मिलती है।जननपेशों को गुच्छों में दरार पडी रहती है।और फिर वे जननपेशीयां बाहर निकलती है।पुरुष जननपेशीयों को गुच्छे फुटने के पूर्व ही उसमें बढने लगती है। उसमें पेशी विभाग होकर एक आती सुदम पुरस्थाणु निकलता है और उस पर रेतकर्ंकड तैयार होता है।इसमें बहूत सी रेत पेशीयं होती है।उनमें बालके सन्देश तन्तु होते है।स्री जननपेशी के गुच्छे में ही बढने लगती है।जननपेशी फुटकर पुरस्थारगु कुछ बाहर निकलता है।इससे तीन रजकर्ंकक उत्पत्र होते है।संयोग होनेपर गर्भ बढता है।उसको पैर निकलते है,और लघुपर्णकके समान प्रलंवक नामक दूसरा भाग होता है।ये वनस्पतियों जंगलोँमें अधिकता से पाई जाती है। (३)दीर्घ परर्गक नाम की बनस्पतियां प्राचीन समय में बहूत थीं।उन वनस्पतियों में से आजकल एक ही अस्तित्व में है। इसका वना छोटे गडूके समान होता है और यह दिव्पाद शाखा युक्त होता है।शाखाएं तथा तने जमीन से मिले रहते है।पत्तोंको एक गुच्छा ऊपर आता है।पत्ते लम्बे दर्भके समान तथा कडे होते हैं।उसमें जननपेशी के गुच्छ होते है। तने में संबर्धक प्रदर रहता हैं और इसी कारण इसकी वृद्धी होती है।बल्कपणों के समान ही इन के पत्तों में एक छोटा आच्छादन होता है।पुरुष जननपेशी भी वल्कपर्णकके समान पहले बढने लगती है और उसमें सुदम पुरस्थाणु उत्पन्न होकर रेतकर्ंड्क उत्पन्न होते है।रजकरंडक भी उसी प्रकार बढकर गर्म तैयार होता है।इसको पैर होता है किन्तु लघुपर्णक और वल्कपणक के समान दूसरा भाग प्रल्ंबक नहीं होता।इस विषय में यह वनस्पति मुद्गलक जातिसे भिन्न है। प्रस्तरी भूत श्रपुष्प वनस्पति प्राचीन समय की कुछु वनस्पति और प्रारिग इत्यादि भूकम्प से या