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परंपुरस्थाणु आता है। उसपर तीन रज करंडक निकलते हैं।परन्तु अन्त में उनमेंसे एक ही रह जाता है।इसमें एकका रेतसे संयोग होकर एक गर्भ तैयार होता है।उसको नेचेकी भांती "पैर " होता है।गर्भ से नवीन आलिंग पीढी उत्पन्न होती है। (२) अश्वपुच्छ-इस जाति में केवल अश्वपुच्छ नामक एक ही वनस्पती है।इसके साधारणत्ः २० भेद हैं।दलदल में यह पैदा होती है।इसका तना आडा और जमीन के नीचे से बढता है और ऊपर खडी शाखाऍं होती हैं।ये प्रतिवर्प नयी पैदा होती हैं।शाखा आक्सर पांच छ्ः फीट ऊंची होती है।अमेरिका में इसका एक भेद होता है जो सबसे ऊंचा बढता है।उसकी ऊंचाई ४० फीट होती है और उसका तना एक इक्ष्ट मोटा होता है।इसके तने में थोडी थोडी दूर पर कंडाग्र रहते हैं और उनके आस पास गोल पत्ते होते हैं।सब पत्ते एक दूसरे को जोडकर कंडाग्र के चारों और एक वेष्टन बन जाता है।पत्तोंके श्रनकोणमें शाखा होती हैं। वे ऊपर आने की जगह न होने के कारण इन पत्तोंके कंडाग्रका वेष्टन फोडकर बाहर आत्ती है।जमीन के नीचे के तनों में गड्डु होते हैं।इसमें पोषक द्रव्य इकट्ठे हुए रहती हैं। इसकी शाखाओँएं एक नली रहती है।उसके आस पास की पेशीभोग में गोल छिद्रोंकी एक प्ंक्ती देख पडती है,इनके बाहरी भाग में पिधानक त्वचा होती है।उसमें हरिद्रव्य होता है।इसके बाहरी भाग में कठिन पेशीजाल होता है।पत्ते बिलकुल छोटे होनेके कारण उनके सात्मी करण का काम तनेको करना पडता है और उसके लिए उसमें हरिद्रव्य होता है।शाखाके कोनेपर तुर्ंके समान एक भाग होता है।यह भाग जनन पेशी उत्पन्न करनेवाले पर्णका होता है।ये पत्ते विशिष्ट रीतिसे चपटे और नीरांजनके फूल पत्तीके समान आकारके होते हैं।उनमें डराठल होता है,और उसका चपटा भाग निकला रहता है।ये पत्ते तनेपर गोलाकार में आते हैं और उनका तुर्रा बनता है। प्रत्येक पत्ते के नीचे पांच से दस तक थैलियां होती है।उनमें जननपेशी होती है।प्रत्येक जननपेशी गोल होकर उसमें पुच्छुके समान दो लम्बे पट्टे होते हैं।ये प्रथमतः उनके चारों और लिपटे रहते हैं।सूख्नने पर वे छूटते हैं।इस कारण जननपेशी उड सकती हैं।थोडा सा पानी मिलते हो यह जनन पेशों के चारों और लपट जाते हैं।इससे दो भित्र प्रकार के पुरस्थाणु उत्पत्र होते हैं।तब संयोगके लिए दोनों प्रकार के पुरस्थाणु पास पास हो जाते हैं ।इस पुच्छ मेम जननपेशी आटककर उनका एक गोला होता है और वह एकदम की एक जगह पडता है।इस प्रकार दो तरह के पुरस्थाणु उत्पत्र होते हैं।कुछ शाखाओं पर जनन पेशी नहीं आती । केवल विविक्षित शाखाओं पर ही आती है। इन शाखाओं में हरिद्रव्य नहीं रहता । जनन पेशी से दो अलग पुरस्थाणु होते हैं।एक स्त्री और दूसरा पुरुष । स्त्री पुरस्थाणु पर आते हैं। शाखाओंके बाहरी पेशी में बालुके कण होते हैं।कई एक में वह इतने अधिक प्रणाम होते हैं की बर्तन मांजने और लकडी चिकनी करने के काम में उनका उपयोग होता है।कुछु कुछु में विषैले पदार्थ भी होते है। (३)मुद्रलक -इस जातिमें तीन भेद होते हैं;-लघुपर्णक ,वल्कपर्णक और दोर्घपर्णक वाहिनिपम अपुष्प वर्ग की अन्य वनस्पतियोंसे इनको उनके रहन सहन और उनके जनन पेशी गुच्छुकी वृध्दी द्वारा पहिचाना जाता है।तनों और मूलोंकी ध्दिपद शाखा फुटना और पतोंका बिलकुल साधा होना उनकी आलिंग पीढी में विशेषता है।पहली दो वनस्पतियों में तना लम्बा और पत्ते छोटे होते हैं परन्तु दोर्घपर्णकमें तना छोटा गड्ढेके समान और पत्ते सूजेके समान होते है।नेचे अथवा अश्वपुच्छके समान उनके कोनेपर एक गुच्छा बनता हैं। पत्तोंसे तुलना करने से यह प्रतीत हो जायगा कि इनकी जननपेशी के गुच्छे दूसरोंसे बहूत बडे होते हैं और उनपर पेशीके अनेक थरोंके कवच होते हैं।उनपर मोटी त्वचाकी पेशी का कडा नहीं होता।दीर्घपर्णक में जनन पेशी के गुच्छेकी त्वचा सडती है और जनन पेशी के बाहर आजाती हैं।परन्तु अन्त में एक खडी चीर होती है और