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की त्वचाके कोशसे तैयार होता है।यह त्वचापर उमरे हुए फोडेफे समान होती है।पूर्स बृध्दिके बाद उनमें एक कोश होता है और इसमें पुरुष तत्वके जनन कोश होते है।उनके बाहर कोशौं की दो कडियां रहती हैं। बीचके कोशका विभाग होता है और उससे रेतके जननकोश बनते हैं और श्रौर इससे रेत होता है।रेतमें ऐठन होनी है और उसमें बहूत से बाल संढश तन्तु होते हैं।किचित् पुराने पुरस्थारगुपर रजकी डिवियां हो जाती है। ये भी एक कोश के समान होती है इनका चंबुसदश भाग पुरस्थारगु में धंसा हुआ रहता है श्रौर गर्दन बाहर रहती है।पुरवावस्था पहूंचने पर गर्दन के कोश का द्रव्य बाहर गिरता है।तय रेत का आकर्षण होकर संयोग होता है। कुछु वनस्पतियों में पुरस्थारगु से संयोग के श्रतिरिक श्रलिंग पीढीकी शाखा भी उत्पत्र होती है।श्रौर ऐसी शाखाओं से पुरस्थारगु पैदा होता है। इस श्रेणीके बृदीके तनेका तनेका तथा पत्तोंको डंठल परके तंन्तुश्रोंको श्रौषधियों में उपयोग किया जाता है। (२)पारग (Hydropterideae)ये बनस्पति पानी अथवा दलदल में पैदा होती है। इनके केवल चार पांच हो भेद है। सबकी जनन पेशियां दो प्रकार को रहती है।श्रौगोंके समान थैली में होता है।इनमें दो भेद हैं-एक स्थलबर्ती और जलवर्ती। स्थलवर्ती में परंगगुच्छ और तृगपरर्गक दो वनस्पतियां है।दोनों का तना जमीन के सरपट बढता जाता है,श्रौर पर खडे पते श्राते है।प्रत्येक पते में लम्बा डंठल होता है। परर्गगुच्छुका पता संयुक्त होता है उसमें चार परर्ग होते हैं।ये सब एक जहग से निकलने के कारण इन पतों का आकार चार पंखडियोंवाले फूलके समान होता है।जननपेशी के गुच्छे का फल का समान आकारवाला संघ पतेके डंठल पर तनेके पास निकलता है।ऐसेही बहूत से संघ निकलते है।तृणपर्णके पते लम्बे सींकके समान होते है।उनमें भी जनन पेशीके गुच्छे के संघ डंठलके पास ही होते हैं।दोनों के पप्ते सिरे से डंठल तक लिपटे हूए रहते हैं।परर्गुच्छु में जननशीके गुच्छोके संघ के दो खडे भाग होते हैं।प्रत्येकमे चौदह से अटारह तक आडी पंक्तीयां रहती है।प्रत्येक पंक्ती में कई जननपेशी के गुच्छे होते है। स्री और पुरुष दो जाती की जननपेशी के गुच्छे एक ही पंक्तिमें मिलते है। तृणपर्णगें संघ के चार भाग होते है और उनमें जननपेशी के गुच्छे भी होते है।पुरुष जननपेशी छोटी होती है।उसमें बाढ शुरु होकर पुरुष पुरस्थारगु उत्पन्न होता है।स्री जननपेशी में भी इसीप्रकार पुरस्थाणु उत्पन्न होकर एक रंज करंराडक उत्पन्न होता है।दो तस्वोंका संयोग होकर वहीं श्रलिग पीढी उत्पन्न होती है। जलवर्ती में श्रमूल और समूल दो बनस्पतियों है।ये पानीपर तैरती रहती हैं श्रमूल में प्रत्येक काएडाय्रपर तीन तीन पते रहते है।उनमें से दो हवामें और एक पानी में रहता है। ऊपर के पतों का आकार और रूप साधारण पतोंका सा होता है।परन्तु पानीप्रेंका पता तन्तु समान होता है और उसमें महीन २ बाल रहता है। अमूल में जडे नही होती । पानीमें के पते उसके जडका काम देते है। पतोंके डंठलोंको पास जननपेशी का गुच्छे होते है।ये संघ गोल रहते है।समूल में पत्ते बहूत होते है परन्तु छोटे छोटे होते है।इन पतोको दो भाग है-एक हवा में और दूसरा पानी में डूबा रहता है। भीतर डूबा हुआ भाग पानी शोषण करने में सहायता पहुंचाता है।ऊपर के भाग में कुछ नालियां होतो हैं जिनमें नॉस्टॉक नामक नोलपाण केश के तन्तु रहते है।समूल में जडों रहती है इसके जननपेशी के गुच्छों का समूह भी पतोंके डंठलोके पास होता है।इसकी दोनों जातियों की जननपेशी के गुच्छों में भिन्न भिन्न होते है। अमूल में पुरुष जननपेशी के गुच्छोँमें पुरुष जननपेशी उत्पन्न होती है ओर पुरुषाणु आता है।उसके रेत करंडकमें से एक लम्बी नली बाहर आती है और वह जननपेशी के गुच्छेके त्वचा को फोडकर उसमें से बाहर आती है और इसमें चार रत पेशी निर्माण होती है,वे इसी नली द्वारा बाहर निकलती है।समूल में जननपेशी के गुच्छे फूटने पर गोद के समान पदार्थ निकलने लगते है।उसी में जननपेशी का गोल होता है।उनके रेतकरडक में से आठ रेतपेशी बाहर बडी जाती है।स्री जननपेशी बहूत बडी होती है।यह जननपेशी , गुच्छोँमें से बाहर न निकलकर वहीं उत्पत्र होती है और उस