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पाणकेश (Algae), अलिंब (Fungus=बुरशी)और शिलावल्क (Lichens) ऐसे तीन विभाग किये जाते हैं। पाणकेश वनस्पतियों में कुछ रंगीन पदार्थ मुख्यतः-हरा द्रव्य-रहता है। इनको अपने बढ़ने के लिये जिन सामग्रियों की आवश्यकता होती है वे उनको स्वंय तय्यार कर लेते हैं; इसलिये उनको दूसरे पर अवलंबित रहने की आवश्यकता नहीं पड़ती। बरशी (भरा) में के वनस्पतियों में रंग नहीं रहता; वे अपनी रक्षा तथा वृद्धि के लिये स्वंय सामग्री उत्पन्न नहीं कर लेते, इसलिये उनको दूसरे पर अवलंबित रहना पड़ता है और वह बांडगुड की तरह परान्नभक्षक होते हैं। यद्यपि यह भेद उनके जीवित क्रम से निकाले जा सकते है तब भी इनमें उनके उत्पत्ति के विषय में कुछ बोध नहीं हो सकता। शिलाबल्क ऊपर कही गई दो वनस्पतियों से मिलकर बनती है। उसमें का पाणकेश पाणकेश के साथ, और भूरा भूरे के साथ, देखा जा सकता है परन्तु भिन्न-भिन्न शिलाबल्क में ही अत्यन्त समानता रहने के कारण उनका एक अलग तीसरा भाग किया जाता है। स्थाणु वर्ग के सूक्षम जंतु (Bacteria) तथा नीलपाणकेश (Cyanophyceae) में की वनस्पति ये सबसे सादी होतो हैं। ये दोनों ही स्थाणुवर्ग में के अन्य वनस्पतियों से बिल्कुल भिन्न हैं। पुच्छविशिष्ट (Flagellata) भाग में के वनस्पतियों को प्रायः बिलकुल छोटे तथा सादे प्राणि की अणी में देखते हैं। उनकी रहन सहन करीब २ वनस्पतियों के सदृश ही है और प्राणि के समान भी है। "कनिष्ट वर्ग के और प्राणि के उदगम" में भी उनको गणनाकी जा सकती है। बुरशो में भी उनको गणनाकी जा सकती है। बुरशो में की कनिष्ट वनस्पति (Mytomycetos) सं विना रंग की वनस्पति हुई होंगी। शैवालतन्तू की जाति भी इन्हों से उत्पन्न हुई होगी। कांडशरीरिका (Characeae) तो अन्य सब स्थाणुवर्ग से आगे बढ़ी हुई होने के कारण स्थाणुवर्ग में सबसे उच्च अवस्था पहुँचनेवालों में गणनाकी जाती है।

   स्थाणुवर्ग में उत्पादन प्रायः असंयोगिक जनन पेशी से (Asexual spores) होती है। ये जनन पेशियॉं तो भिन्न २ वनस्पतियों में भिन्न २ प्रकार से तैय्यार होती हैं। कितनों में कुछ एक विशिष्ट प्रकार के पेशियों के बहुत से भाग होकर उनसे जनन पेशी होती हैं। इन पेशियों को जननपेशो गुच्छा कहते हैं। कितनों स्थाणु (Thallus)के अथवा दूसरे पेशियों के टुकड़े होते हैं;अथवा उनमें एक प्रकार की कलिकाऍं उत्पन्न होती हैं और तब ये कलिकॉंए आगे चलकर जननपेशी बनती हैं। जब जनन पेशी पर छोटे २ बाल के तरह तंतु रहते हैं तब वे हिलकर पानी में तैरते हैं। जिनमें तंतु नहीं रहता और जो पानी में रहते हैं वे वैसे ही खुले रहते है लेकिन जो हवा में रहते हैं उनमें एक पेशीकवच रहता है। योगसंभव (Sexual) उत्पादन भी बहुत स्थान पर दिखाई पड़ता है। उसमे की बिलकुल साधारण किस्म है कि दो संयोगी (Sexual) पेशी एकत्र होकर उनसे एक पेशी तैय्यार होना और बाद में पेशी से नवीन बनस्पति उत्पन्न होना। ये पेशियॉं ज्यादा तर बिलकुल समान होती हैं। कहीं कहीं एक पेशी के महीन तंतु रहते हैं। कहीं २ एक पेशी अत्यन्त छोटी होती है और उसके तंतु रहते हैं। इस पेशी को नरपेशी (Spermatozorid) रेत कहते हैं। रेत रेतकरंडकमे (Antheridia) उत्पन्न होता है। दूसरी रजपेशी बहुत बड़ी रहती है और वह रजकरंडक (Arclugonium) स्त्रीतत्वोत्पादक पेशो में उत्पन्न होती है। स्थाणु वर्ग में कुछ वनस्पतियों में उत्पादन केवल अयोग संभव रहता है, कुछ में केवल योग सभंव और कुछ में दोनों प्रकार से होता है।
   सूक्ष्म जन्तु- (Bacteria) यह उसके रुढ़ि नाम से प्राणिवर्ग मे का मालूम पड़ता है तो भी वस्तुतः वे एक पेशीमय, तंतु के सदृश अत्यन्त सूक्ष्म साधारण वनस्पतियॉं हैं। उनमें हरिद्रव्य न रहने से वे परोपजीवी रहते हैं। सब भूतल पर जल में, जमीन में, हवा में, मृत और जीवित प्राणियों के शरीर में एवं सब जगह यह पाये जाते हैं। इनके पेशीपर एक अत्यन्त पतली त्वचा रहती है और उसके भीतर जीवद्रव्य रहता है। इस जीवद्रव्य में कभी कभी एक अथवा दो जड़ स्थान (Vocules) रहते हैं। उनके कुछ कुछ कण ऐसे रहते है कि वे स्वतः रंगहीन होने पर भी यदि वे रंग चढ़ता है। इन कणों को कितने लोग केन्द्र समक्तते हैं। सूक्ष्म जन्तु ज्ञान सब जीवित सृष्टि मे प्रायः सबसे छोटा है। जो गोल जातियॉं हैं उनमे सबसे छोटी पेशी का व्यास केवल ० ००८ मिलिमीटर यानि ० ००००३ इस रहता है। क्षयरोग के सूक्ष्म जन्तुलंबे आकार ० ००१४ से ० ००४ मिलि मीटर व चौड़ाई ० ००१ मिलिमीटर रहती है। इसी से यह कल्पना की जा सकती है कि वे कितने छोटे हैं।