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जमने दिया जाय तो वह अधिक सड़ जाता है और चारों ओर का स्थान गलना प्रारम्भ हो जाता है। इस कारण घाव अच्छे होने कि परिस्थिति को कभी भी प्राप्त नहीं होता। नाक के भीतर पानी खींचकर या पिचकारी से नाक को साफ करना हानिकारक है। अतः नाक धोने के यन्त्र (Nasal Douche) से ही उसे साफ करना चाहिये। यह यन्त्र कनिष्ट का अंगुली के समान मोटी रबर की नली है जिसके एक और नाक में लगाने योग्य एक यन्त्र लगा रहता है और दूसरी और धातु की एक ऐसी नली जो पानी को भीतर खींचते है। इस नली को आध सेर जल के पात्र में रख देना चाहिये। फिर उस पात्र में सादा सहने योग्य गरम, या कुछ क्षार युक्त औषधि (जिसमें कुछ नमक, सोडा और बोरिक ऐसिड के समान दवाई, मिलकर) जल छोड़्ना चाहिये। इसके पश्चात नाक वाले यन्त्र को नासा पुट में लगाकर पानी के पात्र को ऊपर उठाकर तनिक टेढ़ा करना चाहिये। ऐसा करने से नली में जलप्रवाह प्रारम्भ हो जाता है और वायुमंडल के भार के कारण अबाध गति से प्रचलित रहता है। इस प्रकार नासा पुट में जल समरण प्रारम्भ हो जाता है। यह प्रवाह उस समय तक प्रचलित रहना चाहिये जब तक नाक पूर्ण रूप से गन्दगी से रहित न हो जाय ।

   इस युक्ति के उपयोग के समय मुंह भली भांति खुला रहना चाहिये। ऐसा करने से मृदु तालु (Soft Palate) ऊपर उठ जाता है और नासिका के पिछले छिद्रों का सम्बन्ध मुंह या गले से नहीं रह जाता है। इस कारण एक नासा से गया जल दूसरी नासा से बाहर आ जाता है। इस प्रकार सम्पूर्ण नासिका धुल जाती है और खपलिया निकल जाती हैं। यदि इस प्रकार धोने से भी सब मैल न निकल जाये या ऊपरी भाग की खपलियॉं भीगकर न निकले तो एक बारीक लम्बे तिनके के एक सिरे पर कर रूई लपेटना चाहिये। फिर इस फाये से शनैः बड़ी सावधानी से खुरच कर खपलियों को निकालना चाहिये। आलस्य या अन्य किसी कारण से जब नाक कई दिन तक नहीं धोई जाती तब भीतर खपलियॉं तथा अन्य गन्दी चीज़ें जम जाती हैं। इन चीज़ों को आसानी से निकाल देने के लिए नाक को साफ करने के पहले, गरम पानी से सेंकना (Fomentation) चाहिये और वाष्प को श्वास द्वारा भीतर खींचना (Inhale) चाहिये। इससे जमी हुई कड़ी कड़ी खपलियॉं भी मुलायम होकर जल प्रवाह के साथ बाहर निकल आती है। साधारणतः नाक पिचकारी द्वारा भी निर्मल की जा सकती है। नाक को चूने के निथरे हुए पानी (Lime Water) से अथवा गरम हुए थोड़े दूध के मिअण से धोने से भी लाभ होता है। उक्त प्रकार से नाक को तीन या चार बार धोने से श्लेष्मा या मवाद के गाढ़े होकर जमने की सम्भावना बहुत ही कम रह जाती है। फिर प्रत्येक बार नाक को सफा करते समय न तो कष्ट ही होता है न अधिक समय ही बर्बाद होता है। नाक साफ करते समय दोनों नासा में धोने की क्रिया करने से नासि का स्वच्छ होती है।
   खपलियों के निकल जाने के बाद आवश्यकतानुसार निम्नलिखित औषधियों का प्रयोग करना चाहिये। ये औषधियॉं स्तम्भक तथा दुर्गन्धि नाशक हैं। इन औषधियों के दिये हुए प्रमाणों को दस औंस जल में घोल देना चाहिये। इसी जल से नासिका को धोना चाहिये। परमैगनेट ऑफ पोटैशियम २ ग्रेन, क्लोराइड ऑफ जिन्क २ ग्रेन; सलफेट ऑफ ज़िन्क ३० ग्रेन; कारबोलिक ऐसिड १ ड्राम; नाइट्रेट ऑफ सिल्बर ४ ग्रेन; फिटकिरी ४० ग्रेन; सवागी खार ४० ग्रेन; क्लोरेट ऑफ पोटैशियम ३० ग्रेन; टिन्कचर ऑफ आयोडीन १० बूंद; रस कपूर १-२ ग्रेन इत्यादि। इनमें से किसी भी एक औषधि का प्रयोग बराबर करते रहना चाहिये। स्त्राव अधिक हो तब फिटकिरी त्रिफलेके काढ़े; बबूर की छाल के काढ़े के समान स्तम्भक औषधियों का प्रयोग करना चाहिये। और यदि स्त्राव में दुर्गन्धि अधिक हो तो दुर्गन्धि नाशक औषधिकों का (कारबोलिक ऐसिड, कैन्डीज़,फ्लूइड) प्रयोग करना चाहिये। 
   नाक के स्वच्छ हो जाने के पश्चात गौके घृत में ग्लीसरीन, हेयलीन, या बॉलसम ऑफ पेरू,ऐसी ही स्निग्ध किसी औषधि में या तैल में रूई भिगो कर उसे लोहे की सलाई द्वारा नासा के भीतर रख देना चाहिये। इसके अतिरिक्त अनेक लोग सुंघनियों का या दुर्गन्धिनाशक बुकनियों का भी प्रयोग करते हैं। बोरिक ऐसिड, बिसमथ सॉलल, कपूर, माजूअफल की बुकनी, कैलोमल, कंकोल, आयडो फार्म इन्हे खरियामिट्टी चीनी या चावल के आटे के साथ, आवश्यक प्रमाणों में मिलाकर बार बार सूंघा जाता है। परन्तु सुंघनी की अपेक्षा पूर्व कथित उपयोग ही अधिक लाभदायक है अर्थात स्निग्ध औषधियों का प्रयोग करना चाहिये।
   साधारणतः नाक रोज़ धोने से तथा दुर्गन्धिनाशक औषधियों के प्रयोग से भीतर के घाव शीघ्र