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टकुछ कमसा हो गया| इस वेद के मंत्रो का उपयोग राद्सौका का नाश करने के लिए किया जाने लगा और इसके लिए उपर्युक्त देवताओं का आव्हान किया जाने लगा| यानी अथर्ववेद में यह देवता केवल रसाल- लान्हारका रह गए | अंत में अथर्व वेद व देवताओं और सांसारिक उत्पत्तिके विश्व में जो कल्पनायें हैं उसमे भी सिद्ध होता है की ये मंत्र ऋग्वेदा के बाद के हैं | इस वेद में तत्त्व ज्ञान की परिभाषाओं का अच्छा विकास दिखाई देता है| 'ईश्वर सर्वव्यापी है' इस कल्पना का जो उन्नत स्वरुप उपनिषेद में दिखाई देता है लगभग वैसे ही इसमें दृस्टि गोचर होता है|

तत्त्वज्ञान के सुत्तकों कभी श्रमिचार मन्त्रों  की तरह उपयोग किया गया है| उदहारण यों है| तत्त्व विद्या में 'श्रसत्त' से अभीप्राय रहस्य , शत्रु और श्रमिचार के नाश से है| इससे स्पष्ट है की इस वेद में जो श्रमिचार , मंत्र और तंत्र सन्निवृस्त है वे प्राचीन काल में साधारण जनता में प्रचलित जादू टोन में कल्पनायें जोड़ कर तयार किये हुए कृत्रिम नए सलनकरण मात्र है |

अथर्ववेद का स्तान -- बहुत दिनों तक भारतीय अथर्ववेद को पूज्य और पुनीत नहीं मानते थे| आजभी इस विषय में भेद है| पर छाती थोक कर यह नहीं कहा जा सकता की यह वेद बहुत प्राचीन नहीं है | इसका प्रमाण अथर्व वेद के विषय है| इस वेद का श्रमिप्रय अनिष्ट शांति , इष्ट पूर्ति और शत्रु पीड़ा है 'अभिशाप' , 'भूतपसलरण' आदि के सम्बन्ध में आने वाले मंत्र विधि अपविन्न मंत्र में आ सकता है | इसलिए भ्रम्हणों ने उन्हें अपने भ्रम्हणधर्म से दूर ही रखा है | यदि वास्ततः देखा जाये तो परमाथसाधन और जादू विद्या में कुछ भी अंतर नहीं है| दोनों ही अन्तिदृया (इंद्रा से परे) सृस्टि पर कब्ज़ा करने की कोशिश करते हैं| इसके सिवा आचार्य और जादूगर असलियत में एक ही हैं| किन्तु हर एक देश के लोगों के इतिहास में एक ऐसा समय आ जाता है जब परमार्थ सांप्रदाय और मंत्र विद्या एक दूसरे से अलग होने की कोशिश करते हैं| यह हो सकता है की इसमें पूर्ण रूप से सफलता न प्राप्त हो| देवताओं से प्रेम रखनेवाला पुरोहित, पिचासो, भूतप्रेतदीको से सम्बन्ध रखने वाले जादूगर का आदर नहीं करता और उससे अपने से उत्तर कर (हल्का) सम्भक्ता है| भारतपूर्व में भी यह भेद बढ़ता ही गया है| बुद्ध और जैन बिख्तुओं को कठोर आशा है की वे अर्थवेद के अभिचारों से और मंत्र विद्या से दूर रहें | यही नहीं ब्रम्हाणी धर्मशास्त्रों में मारण मोहन अववतन आदि पाप माने गए हैं| इसका प्रयोग करने वाले धोकेबाज़ और पाकंदियों की श्रेणी में माने जाते हैं और उन्हें दंड देने का आदेश राजा को दिया गया है| इसके वपरीत ब्राम्हणों के धर्मशाला में कई स्तनों पर शत्रु के विरुद्ध अथर्ववेदीय अभीचार मन्त्रों को काम में लाने की स्पष्ट आग्यां दी गयी है| बड़े बड़े यज्ञों का वर्णन जिन सूत्र ग्रन्थ में है उनमें भी भूतपसरलनण मंत्र और शत्रु का नाश करने में सहायक मंत्रविधियों के वर्णन मिलते हैं| आगे चल कर तीन वेद -- ऋक, यजु और सामके ज्ञाता पुरोहितों में इन अभिचार मंत्रो के प्रति कुछ अथाध्या उत्पन्न हुयी| ये पुरोहित अथर्ववेद को सत्य और प्राचीनताकि दृस्टि से काम महत्वपूर्ण सम्बंद ने लगे| इसी कारण यह दिखाई देता है की कहीं कहीं इन लोगों ने इस वेद का पवित्र धर्मग्रंथों में समावेश से आनाकानी है| आरम्भ ही से पवित्र धार्मिक साहित्यों में इसका स्तान कुछ अनिस्श्चत सा था| इस सम्बन्ध में जो कल्पनायें थी वे भी विचित्र थी| पुरातन ग्रंथों में जहाँ कहीं पवित्र धार्मिक ग्रंथों का उलेक्ख हुआ है यहाँ उससे अभिप्राय ऋक, यजु और सामसे प्रथमतः माना गया है| हाँ, कहीं भूल से हुआ भी तो इस वेदकी फ्रामसंख्या उन तीनो के बाद ही हुई है| कहीं कहीं तो धर्मग्रंथोंकी सूचि में वेदांग पुराण तक दिखाई देंगे, पर अथर्वावेदा का नाम भी न मिलेगा | शांखायन के गृहा-सूत्र में (१-२, ४, ६) एक संस्कारका वर्णन है| यह एक नवजात शिशु के प्रति 'वेदाधिदपरण' संस्कार है| इस संस्कार में जो मंत्र कहां जाता है वह यौ है - " है शिशु, मैं तेरे प्रति (तुभक्तमें) ऋग्वेदाशिपारण करता हूँ; तुभक्तमें यजुर्वेदाशिपारण करता हूँ , मैं तुभक्तमें सामवेदाघृदोपारण करता हूँ, मैं तुभक्तमें पाराधीशिपारण करता हूँ, मैं तुमको समस्त वेदाधि श्रेपर्णं करता हूँ |" यहाँ अथर्ववेद जान्भुक्तकर छोड़ दिया गया है | पुराने बोधदधर्म ग्रंथों में ब्राम्हणोंका उल्लेख करते समय उन्होंने केवल तीन वेदामें पारंगत कहां गया है | उपर्युक्त स्तनों में अतर्ववेद का उल्लेख न पाकर यदि कहा जाए की अतर्ववेद-संहिता सबके बाद बानी है , तो ऐसा कहना बिलकुल गलत होगा क्यूंकि कृप्या यजुर्वेदा की एक संहितामें और कहीं कहीं ब्राह्मण तथा उपनिषेद आदि ग्रंथों में अथर्ववेदा का उल्लेख अन्य तीन वेदोंके साथ ही साथ किया गया है |