यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

काम से कहते हैं| सांगली सियासत में शावास्या गोप्र के बापू आया नामक एक बहुत विद्वान महाशय हैं| भ्रयाएवाचार्य -- यह बड़े प्राचीन तेलगु ग्रहरा थे| वह उच्च कोटिके कवि थे| इनका समय लगभग ३ हज़ार वर्ष पहले निर्धारित किया जाता है| यह तेलगु तथा संस्कृत दोनों ही भाषा के पुरे विद्वान थे| महाभारतके आधार पर इन्होने एक ग्रन्थ तेलगु भाषा में लिखा है| वर्त्तमान हाल में उसका बहुत थोड़ा सा भाग प्राप्त है| इनके याईके कवियों ने इनकी कविताओं का बहुत सा भाग अपनी कविताओं में मिला दिया है| अथर्यबंध-- सामान्य रूप -- अथर्षवेध में अभिचार मंय है| यह अर्थयन् लोगों का वेद है| प्राचीन समय में अग्निके उपासक पोरोहितों को खयर्वन कहते थे| बाद में यही नाम सामान्यतः सब पुरोहितों के लिए हो गया| यह शब्द पर्शुभारतीय काल का है| अवेस्यता में उल्लिखित 'खअवन' और हिन्दुओंके अथर्वन् लोगोंमें बहुत कुछ समानता है| प्राचीन ईरानियोंमें अग्नि पूजाओंके नाम से जो प्रसिद्ध हुए उसमे जिस प्रकार का अग्निका महारमय था उसी तरह भारतीयों की दैनिक पूजा विधिमेंभी अग्नि की बैसीही प्रआनता थी| यह प्राचीन अग्नि पूजक अमरीकाके 'इंडियन' लोगोंके वैध्धकी तरह अथवा एशियाके 'शामत' लोगों की तरह जादू टोना जानते थे| यह अग्नि उपासक 'जारस मारस' विधा भी जानते थे| यानि एक ही व्यक्ति आचार्य और अभिचारक दोनों ही था|मीडिया देश में खअवन लोगों को 'मागी' ( जादू टोना जानने वाले अग्नि पूजक) कहते थे| इसी कारण पुरोहित्वर्ग में आचार्य और अभिचारक दोनों का संयुक्त अस्तिव सिद्ध होता है| इसी प्रकार यह भी स्पष्ट है की अथर्वन् लोगों के अथवा आचार्य और अभिकारकोंके मंत्रो (अभिचारों) का नाम अर्थवान था|भारतीय साहित्य में इस वेध का बहुत पुराण नाम 'अथवोगीरल' था| इतिहास काल के पूर्व 'अंगिरस' नाम की उपासकोंकी एक जोश थी| अर्थवान शब्द की तरह 'अंगिरस' शब्द का अर्थभी जारस मारस मंत्र किया जाने लगा| परन्तु अर्थवान और अंगिरस दो भिन्न वर्गोंके मंत्र हैं| एक कल्पना यह भी है की ग्रहण जाती के उत्पत्तिके पहले जो लोग उत्पति का काम करते थे उन्हें अयवर्ण कहते हैं| यह भी संभव है की जिस तरह पशुओं के आचार्य लोग विदेशी थे उसी तरह हिन्दुओं के आचार्य भी विदेशी हों| इतना अवश्य सिद्ध है की इन पुरोहितों व आचार्यों में कुछ विदेशी लोग घुस गए थे| 'अथर्वन्' मंत्र सुख देने वाले और पवित्र हैं| 'अंगिरस' मंत्र ठीक विपरीत अर्थात अघोर तथा पीड़ा देनेवाले हैं| इसका स्पस्टीकरण यों है| 'अथर्वन्' मन्त्रों में रोग निवारक विधियों का वर्णन है तोह 'अंगिरस' मन्त्रों में दोषी शत्रु और मायावी तथा पीड़ा देने वालों को शाप देने की विधियां कही गयी हैं| अथर्ववेद में प्रधानतः 'अथर्यन और अंगिरस'-- दोनों प्रकार के विधि बतलायी गयी है| इसीलिए इन वेदों का पुराण नाम 'अथबंगिरस' है| 'अर्थवेद' नामकरण बाद में हुआ और यह 'अथरबंगिरस वेद' से संदीप्त रूप है| 'अथर्वावेद संहिता' में एक प्रति में कल ७३१ सुत्तक और लगभग ३००० ऋचाएं हैं| इस वेद के २० कोड हैं| २० वां कोड तोह बहुत याद का लिखा हुआ मालूम होता है १६ वां कोड भी पहले शायद इस सहिता में नहीं था बीसवे कोड के करीब करीब सभी सुत्तक आदर्शः ऋग्वेद सहिता से लिए हुए हैं| इसके अलावा अथर्ववेद सहिता का लगभग सप्तमांश भर ऋग्वेदाही से लिया गया है| ऋग्वेद और अथर्वावेद दोनों में सामान्य रूप से मिलने वाली रिचयों में आधी से अधिक रिग वेदा के डलवे मंडल में मिलती है और बाकी बहुत सी ऋचाएं ऋग्वेद के पहले और श्रठये मंडल में मिलती है| अथर्वावेद के २० वां कोडोंके सुत्तंकी रचना बहुत नियमित और सुव्वस्तीतकी गयी है| पहले साथ कोड़ों में बहुत छोटे छोटे सुत्तके हैं| पहले कोड के सुत्तक साधारणतः चार चार ऋचाओं के, दूसरे में पांच रिचयोंके , तीसरे में छः रिचयों के और चौथे में साथ रिचयों के हैं| यही साधारण क्रम है| पांचवे कोड के सुत्तंकी ऋचाएं कम से कम आठ व अधिक से अधिक अठारः है| छटे कोड में तीन ऋचाओं के १४२ सुत्तक हैं और सातवे कोड में एक या दो ऋचाओं के २१० सुत्तक हैं| आठ से ले के चौदाहये कोड में और सत्रावे तथा अठरावे कोड में लम्बे लम्बे सुत्तक हैं| इन उपर्युक्त कोड में सबसे छोटा सुत्तक (२१ ऋचाओं का) आठवे कोड का पहला सुत्तक है और सबसे लम्बा (७६ रिचयों का) अठारवे कोड का अंतिम सुत्तक है| पंद्रह कोड पूरा और सोलहवे कोड का बहुत सा अंश गद्यात्मक है| इनको भाषा और रचना 'ग्रहरण' ग्रंथों की तरह है| इन बातों को देखनेसे