यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२ ६ २ ३1 १धि1१न के ५

म्बली ) के सदस्य रहे । सत् १९१९ में रौलट मसविदे के विरोध में स्याना- पत्र दे दिया । सत् १ ९१ ६-१ ९ तक भारतीय ओद्योगिक कमीशन के सदस्य रहे । इसमे आपने, मतक्वेविरोघ के कारण, अलग अपनी रिपोर्ट लिखी । सन् है ९१ ६ में काशी हिन्दू विश्व-विद्यालय की स्थापना की और प्रारम्भ सेही वह उसके वाइसन्तासलर रहे 1 सन् है ९२ २-२ ३ में हिन्दु: महासभा के प्रधान चुने गये । सन् १९२४ से केनिद्रय व्यवस्थापक सभा के सदस्य और वहाँ विरोधी दल के नेता रहे । तटक्रर (टेंरिफफ्रैंबिल के विरोध में त्याग-म दे दिया । सन् ११३३ के सितम्बर मे, जब महात्मा गाधी ने यरवदा-ते-नेत्र में अछूत बहे जाने- वाले वर्ग को उसके विशाल वर्ग से काटनेवाली योजना के सम्बदृघ मे, साम्प्र" दायिक निर्णय के विरुद्ध, आमरण व्रत रखा तब तुरन्त ही माल-निजी बम्बई गये और वहाँ हिन्दू नेताओं का सम्मेलन किया, जिसने-, अध्यक्ष मालवीयजी ही थे । फलता समकौता होगया । आप काग्रेस कों मा के समान आदर और श्रद्धा की दृष्टि से देखते रहे हैं । किन्तु अपने विचारो के प्रकट करने में वे कभी नहीं चूके । पूर्वकाल में जब काग्रेस नरमदलवालों की संस्था थी, उस समय, पूर्णरूप से नरमदल से अलग न रह सके । गांधीजी के उदय के समय भी आपका काग्रेस से मतभेद हुआ, जिसके कारण आप असहयोग-मिशेल से अलग ही नहीं रहे वल्कि उसका विरोध किया । किन्तु सत् है ३ ०-३ ले में पूर्ण रूप से देश का नेतृत्व किया और जेल-यात्रा की । तदुपरान्त भी ऐसे अवसर अपने रहे जब आप काग्रेस की, विशेषकर उसकी मुसलमानों के जाति, नीति से असहमत रहे । आपका हिदू-भाव सदैव ही जाग्रत रहा है । आपके जीवन का रिऱक्षाक्वेंप्रसार-सम्बच्चाघी रचनात्मक कार्य, हिइविश्यविद्यालय के रूप में, चिर- स्थायी है । यह संस्था महान् है, और भविष्य में भी उससे अनेक आशाएं हैं, किन्तु मालवीयजी के लिये वह जिस प्रकार गले का हार बनी, उससे उनका कार्य क्षेत्र समस्त देश के सुविशाल क्षेत्र से सिमट कर बहुत कुछ काशी विश्वविद्यालय तक सीमित हुआ । सम्भव': इसीलिये यह कभी-कभी सुनाई पडता है कि यांद्दे उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना न की होती तो आज, शरीर से जीर्ण होते हुए भी, न केवल मालवीयजी बल्कि उनके कारण भारतीय राष्ट्र -भी अधिक महान् होता । महामना मे यह प्रेरक शक्ति है ।