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फ्रांस
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वरतानिया के साथ-साथ पोलैण्ड की रक्षा के लिये सेना सजाई, किन्तु देश पूरे मन मे नहीं उठा। अधिकांश फ्रान्सीसी अपनी पूर्वीय मेजिनो दुर्ग-पक्ति पर भरोसा किये बैठे रहे। वह यह भूल गये कि वेलजियम की ओर उनके उत्तरी सीमान्त की किलेबन्दी सुदृढ नहीं है। लडाई का बहाना लेकर दलादिये ने अपने मन के विशेष कानूनो द्वारा शासन चालू रखा। कम्युनिस्ट दल का अत्याचारपूर्वक दमन किया गया। सोवियत-जर्मन-समझौते के कारण कम्युनिस्टों ने लडाई का विरोध करना शुरू किया। अखबारो का गला घोटा गया, फलतः जनता को समाचार नहीं मिलने लगे। फ्रान्सीसी सत्ताधारियों को अपने ही लोगो पर विश्वास नहीं रहा और वह नासियों और फासिस्तों में अपनी रक्षा का आभास देखने लग गये। इन्ही कारणों से युद्ध-प्रयत्नो को बाधा पहुँची ओर, मई १९४० मे, जब नात्सी सेनाओं ने हालैण्ड और वेलजियम मे होकर फ्रान्स पर धावा कर दिया तब पता चला कि फ्रान्सीसी सेना के पास पर्याप्त शसास्त्र भी नहीं थे। फ्रांसीसियो ने शुरू मे जमकर मोर्चा लिया, किन्तु जून '४० मे वह शत्रु के सम्मुख टिक न सके। जर्मनी के युद्धायुव उच्च कोटि के थे, किन्त फ्रान्स के पतन मे राजनीतिक और नैतिक कारण भी सहायक हुए।

फ्रान्स पर आक्रमण होने ने पूर्व ही, मार्च '४० मे, दलादिये-सरकार ख़त्म होगई और रिनो-सरकार आई। आक्रमण के समय, मई में, ८५ वर्ष के बुढे मार्शल पेतॉ को मन्त्रिमण्डल में शामिल किया गया। १३ जून को, पेरिस का पतन हो जाने पर, फ्रान्स ने त्वरित सहायता के लिए अमरीका से गुहार की, किन्तु व्यर्थ। अमरीका तत्काल ही कुछ न कर सका। इसी समय रिनौ ने अपने मित्र-राष्ट्र वरतानिया से करना शुरु किया कि फ्रान्स शत्रु से पृथक् संधि करेगा। क्योंकि पारस्परिक पूर्व समझौता इसमें बाधक था। वरतानिया ने लड़ाई जारी रखने का प्रस्ताव किया और अपने समझौते का भरोसा दिलाया। फ्रान्स इस पर राजी न हुआ। ब्रिटेन ने कहा कि यह फ्रान्स को अपने अहसानान से पूरी कर देने के तैयार है, किन्तु फ्रांसीसी जहाज़ी बेड़ा शत्रु के हाथ न पड़ने दिया जाय। इसी बीच फ्रांसीसी-पक्षीय और वरतानिया-विरोधियों ने किसी-सरकार को उस पर दिया और तब पेताॅ प्रधानमंत्री बना। पेताॅ की सरकार ने २२ जून को जर्मनी से संधि करली और एक प्रकार से