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गान्धी-सेवा-संघ
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(trustee) के रूप में और इनकी सम्पत्ति को जनता की धरोहर की भॉति व्यवहृत देखना चाहता है। गान्धीवाद त्याग, तपस्या, कष्ट-सहन तथा ब्रह्मचर्य आदि के पालन पर विशेष ज़ोर देता है। इसलिए उसकी प्रवृत्ति भोगवादी नहीं है। समाज-सुधार का वह समर्थक है। परन्तु वह उसका समर्थन वहीं तक करता है जहाँ तक उसका सदाचार तथा नैतिकता से संघर्ष नहीं होता। इसी आधार पर गान्धीवाद सन्तान-निग्रह के कृत्रिम साधनों का विरोधी हैं। संक्षेप में गान्धीवाद शुद्ध हिन्दुत्व का प्रतिरूप है।


गान्धी-सेवा-संघ--सन् १९२४ मे सेठ जमनालाल बजाज (अब स्वर्गीय), श्री राजगोपालाचारी, सरदार वल्लभभाई पटेल, डा राजेन्द्रप्रसाद आदि नेताओं ने इस संघ की स्थापना की। शुरू में इसका कार्य गान्धीजी के विचारों का प्रचार करना था। इस संघ के सदस्यों को राजनीति में भाग लेने की स्वतन्त्रता थी। बारह वर्ष तक इस संघ का कार्य जनता में लोकप्रिय न बन सका और न इसने आन्दोलन का रूप ही धारण किया। पहले इसके सालाना अधिवेशन भी नहीं होते थे। सन् १९३४ में इसका पहला सम्मेलन हुआ। श्री किशोर-लाल घ० मश्रुवाला के अनुसार इन सालाना सम्मेलनों में गान्धीजी का पूरा-पूरा भाग रहा। उन्होंने संघ को नया रूप देकर बड़ा बनाया तथा उनको वह अपने विचार और नीति बतलाते रहे। वैसे इस संघ का उद्देश्य "महात्मा गान्धी के सिखाये हुए सत्याग्रह के सिद्धांतो के अनुसार जनता की सेवा करना है," परन्तु वास्तव में यह संघ गान्धीवादियों का संगठन बनाने के लिए खोला गया। संघ के वृन्दावन (बिहार) अधिवेशन में एक प्रस्ताव में यह स्पष्ट रूप से आदेश किया गया है कि--"समस्त राजनीतिक चुनावों में संघ के एक सदस्य को दूसरे सदस्य का विरोध न करना चाहिए और न मुक़ाबले में ही राग रोना चाहिए।"