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हैं: श्री भगवानदास माहेश्वरी, पटवों की हवेली, जैसलमेर; श्री भंवरलाल सुथार, राजोतियावास, जैसलमेर; श्री रमेश थानवी, राजस्थान प्रौढ़ शिक्षण समिति, ७ए, झालना डूंगरी संस्थान क्षेत्र, जयपुर।

इस अध्याय के नायकों की अधिकांश जानकारी मौखिक बातचीत से ही समेटी गई है। जितनी भी लिखित सामग्री पर नज़र पड़ी, वह मुख्यतः शोध कार्यों का रूपांतर या सरकारी गजेटियर, पुराने रिकार्ड, रिपोर्ट के स्वरूप में थी। शास्त्रीय स्रोतों में वास्तुशास्त्र, मानसार सीरीस या समरांगन सूत्रधार जैसे जटिल ग्रंथों के ही सूत्र मिल पाए। ऐसा माना जाता है कि सोलहवीं सदी के आसपास नायक-शिल्पियों का संगठन बिखरने लगा था और उसी के साथ इस कला से संबंधित विविध ग्रंथ भी लुप्त होने लगे थे।

ऐसे संकट के समय में ही गुजरात, पाटण के सोमपुरा क्षेत्र में शिल्पी सूत्रधार नाथुजी का जन्म हुआ था। उन्होंने अपने कुटंब के अस्त-व्यस्त ग्रंथों को फिर संभाला और संस्कृत में वास्तुमंजरी की रचना की। स्थपति श्री प्रभाशंकर ओघड़भाओ सोमपुरा ने इसी ग्रंथ के मध्य भाग 'प्रासाद मंजरी' का गुजराती में रूपांतर किया। ऐसे काम की श्रृंखला में श्री भारतानंद सोमपुरा ने इसे हिन्दी पाठकों के लिए सन् १९६४ में प्रस्तुत किया।

इस पुस्तक की भूमिका शिल्पी के भेदों पर अच्छा प्रकाश डालती है। ये हैं: स्थपति यानी जो स्थापत्य की स्थापना में संपूर्ण योग्यता रखते हैं। इनके गुण-कर्मों का अनुसरण करने वाले पुत्र या शिष्य सूत्रग्राही कहलाते हैं। ये रेखाचित्र बनाने से लेकर स्थपति के सारे कार्यों के संचालन में निपुण होते हैं। बोलचाल की भाषा में ये 'सुतार-छोड़ो' नाम से भी जाने जाते हैं। 'सूत्रमान प्रमाण' को जानने वाले तक्षक पत्थरों का छोटा-बड़ा काम स्वयं करते हैं। काष्ठ और मिट्टी के काम में निपुण वर्धकी होते हैं।

पर केवल कौशल का गुण ही श्रेष्ठ शिल्पी की योग्यता की पहचान नहीं। वास्तुशास्त्र के अनुसार यजमान को चाहिए कि शिल्पी के गुण-दोष को भी कसौटी पर कस ले। कर्म के गुण के साथ आचरण में गुणवान सिद्ध होने वाला ही श्रेष्ठ शिल्पी हो सकता है। धार्मिक, सदाचारी, मिष्टभाषी, चरित्रवान, निष्कपटी, निर्लोभी, बहु-बंधु वाला, निरोगी, शारीरिक रूप से दोषहीन होना भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कि चित्ररेखा में कुशल होना या शास्त्र और गणित का ज्ञाता होना। समाज को बनाने और उसे संवारने

९३ आज भी खरे हैं तालाब