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सन् १८०० में मैसूर राज दीवान प़ूर्णैया देखते थे। तब राज्य भर में ३९,००० तालाब थे। कहा जाता था कि वहां किसी पहाड़ी की चोटी पर एक बूंद गिरे, आधी इस तरफ और आधी उस तरफ बहे तो दोनों तरफ इसे सहेज कर रखने वाले तालाब वहां मौजूद थे। समाज के अलावा राज भी इन उम्दा तालाबों की देखरेख के लिए हर साल कुछ लाख रुपए लगाता था।

राज बदला। अंग्रेज़ आए। सबसे पहले उन्होंने इस 'फिजूलखर्ची' को रोका और सन् १८३१ में राज की ओर से तालाबों के लिए दी जाने वाली राशि को काट कर एकदम आधा कर दिया। अगले ३२ बरस तक नए राज की कंजूसी को समाज अपनी उदारता से ढक कर रखे रहा। तालाब लोगों के थे, सो राज से मिलने वाली मदद के कम हो जाने, कहीं-कहीं बंद हो जाने के बाद भी समाज तालाबों को संभाले रहा। बरसों पुरानी स्मृति ऐसे ही नहीं मिट जाती। लेकिन फिर ३२ बरस बाद यानी सन् १८६३ में वहां पहली बार पी.डब्ल्यू.डी. बना और सारे तालाब लोगों से छीन कर उसे सौंप दिए गए।

प्रतिष्ठा पहले ही हर ली थी। फिर धन, साधन छीने और अब स्वामित्व भी ले लिया गया था। सम्मान, सुविधा और अधिकारों के बिना समाज लाचार होने लगा था। ऐसे में उससे सिर्फ अपने कर्तव्य निभाने की उम्मीद कैसे की जाती?

मैसूर के ३९,००० तालाबों की दुर्दशा का किस्सा बहुत लंबा है। पी.डब्ल्यू.डी. से काम नहीं चला तो फिर पहली बार सिंचाई विभाग बना। उसे तालाब सौंपे गए। वह भी कुछ नहीं कर पाया तो वापस पी.डब्ल्यू.डी. को।

८२ आज भी खरे हैं तालाब