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कोई भी तालाब अकेला नहीं है।
वह भरे पूरे जल परिवार का एक सदस्य है।
उसमें सबका पानी है
और उसका पानी सब में है-
ऐसी मान्यता रखने वालों ने
एक तालाब सचमुच वही ऐसा बना दिया था।
जगन्नाथपुरी के मंदिर के पास बिंदुसागर में
देशभर के हर जल स्रोत का नदियों और समुद्रों
तक का पानी मिला है। अलग-अलग दिशाओं से आने
वाले भक्त अपने साथ अपने क्षेत्र का थोड़ा-सा पानी
ले आते हैं और उसे
बिंदुसागर में अर्पित कर देते हैं।

जिसके मन में, तन में तालाब रहा हो, वह तालाब को केवल पानी के एक गड्ढे की तरह नहीं देख सकेगा। उसके लिए तालाब एक जीवंत परंपरा है, परिवार है और उसके कई संबंध, संबंधी हैं। किस समय किसे याद करना है, ताकि तालाब बना रहे—इसकी भी उसे पूरी सुध है।

यदि समय पर पानी नहीं बरसे तो किस तक गुहार पहुंचानी है? इंद्र हैं वर्षा के देवता। पर सीधे उनको खटखटाना कठिन है, शायद ठीक भी नहीं। उनकी बेटी हैं काजल। काजल माता तक अपना संकट पहुंचाएं तो वे अपने पिता का ध्यान इस तरफ अच्छे से खींच सकेंगी। बोनी हो जाए और एक पखवाड़े तक पानी नहीं बरसे तो फिर काजल माता की पूजा होती है। पूरा गांव कांकड़बनी यानी गांव की सीमा पर लगे वन में बने तालाब तक पूजागीत गाते हुए एकत्र होता है। फिर दक्षिण दिशा की ओर मुंह कर सारा गांव काजल माता से पानी की याचना करता है—दक्षिण से ही पानी आता है।

काजल माता को पूजने से पहले कई स्थानों में पवन-परीक्षा भी की जाती है। यह आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा पर होती है। इस दिन तालाबों पर मेला भरता है और वायु की गति देखकर पानी की भविष्यवाणी की जाती है। उस हिसाब से पानी समय पर गिर जाता है, न गिरे तो फिर काजल माता को बताना है।

तालाब का लबालब भर जाना भी एक बड़ा उत्सव बन जाता। समाज के लिए इससे बड़ा और कौन-सा प्रसंग होगा कि तालाब की अपरा चल निकलती है। भुज (कच्छ) के सबसे बड़े तालाब हमीरसर के घाट में बनी हाथी की एक मूर्ति अपरा चलने की सूचक है। जब जल इस मूर्ति को ७८ छू लेता तो पूरे शहर में खबर फैल जाती थी। शहर तालाब के घाटों पर आ जाता। कम पानी का इलाका इस घटना को एक त्यौहार में बदल

७८ आज भी खरे हैं तालाब