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तब गरमी का मौसम सामने खड़ा है और यही सबसे अच्छा समय है तालाब में कोई बड़ी टूट-फूट पर ध्यान देने का। वर्ष की बारह पूर्णिमाओं में से ग्यारह पूर्णिमाओं को श्रमदान के लिए रखा जाता रहा है पर पूस माह की पूनों पर तालाब के लिए धान या पैसा एकत्र किये जाने की परंपरा रही है। छत्तीसगढ़ में उस दिन छेर-छेरा त्यौहार मनाया जाता है। छेर-छेरा में लोगों के दल निकलते हैं, घर-घर जाकर गीत गाते हैं। और गृहस्थ से धान एकत्र करते हैं। धान की फसल कट कर घर आ चुकी होती है। हरेक घर अपने-अपने सामर्थ्य से धान का दान करता है। इस तरह जमा किया गया धान ग्रामकोष में रखा जाता है। इसी कोष से आने वाले दिनों में तालाब और अन्य सार्वजनिक स्थानों की मरम्मत और नए काम पूरे किए जाते हैं।

सात माता का ठाला

सार्वजनिक तालाबों में तो सबका श्रम और पूंजी लगती ही थी, निहायत निजी किस्म के तालाबों में भी सार्वजनिक स्पर्श आवश्यक माना जाता रहा है। तालाब बनने के बाद उस इलाके के सभी सार्वजनिक स्थलों से थोड़ी-थोड़ी मिट्टी लाकर तालाब में डालने का चलन आज भी मिलता है। छत्तीसगढ़ में तालाब बनते ही उसमें घुड़साल, हाथीखाना, बाजार, मंदिर, श्मशान भूमि, वेश्यालय, अखाड़ों और विद्यालयों की मिट्टी डाली जाती थी।

शायद आज ज़्यादा पढ़-लिख जाने वाले अपने समाज से कट जाते हैं। लेकिन तब बड़े विद्या केन्द्रों से निकलने का अवसर तालाब बनवाने के प्रसंग में बदल जाता था। मधुबनी, दरभंगा क्षेत्र में यह परंपरा बहुत बाद तक चलती रही है।

तालाबों में प्राण हैं। प्राण प्रतिष्ठा का उत्सव बड़ी धूमधाम से होता था। उसी दिन उनका नाम रखा जाता था। कहीं-कहीं ताम्रपत्र या शिलालेख पर तालाब का पूरा विवरण उकेरा जाता था।

कहीं-कहीं तालाबों का पूरी विधि के साथ विवाह भी होता था। छत्तीसगढ़ में यह प्रथा आज भी जारी है। विवाह से पहले तालाब का

७५ आज भी खरे हैं तालाब