बनाना या उनकी मरम्मत करना माना जाता था। कहा जाता है कि बुदेलखंड के महाराजा छत्रसाल के बेटे को गड़े हुए खज़ाने के बारे में एक बीजक मिला था। बीजक की सूचना के अनुसार जगतराज ने खज़ाना खोद निकाला। छत्रसाल को पता चला तो बहुत नाराज हुए: "मृतक द्रव्य चंदेल को, क्यों तुम लियो उखार'। अब जब खज़ाना उखाड़ ही लिया है तो उसका सबसे अच्छा उपयोग किया जाएगा। पिता ने बेटे को आज्ञा दी कि उससे चंदेलों के बने सभी तालाबों की मरम्मत की जाए और नए तालाब बनवाए जाएं। खजाना बहुत बड़ा था। पुराने तालाबों की मरम्मत हो गई और नए भी बनने शुरु हुए। वंशवृक्ष देखकर विक्रम संवत् २८६ से ११६२ तक की २२ पीढ़ियों के नाम पर पूरे २२ बड़े-बड़े तालाब बने थे। ये बुंदेलखंड में आज भी हैं।
शायद आज
ज्यादा पढ़ लिख जाने वाले
अपने समाज से कट जाते हैं।
लेकिन तब बड़े विद्या केंद्रों से
निकलने का अवसर
तालाब बनवाने के प्रसंग में बदल जाता था
मधुबनी, दरभंगा क्षेत्र में
यह परंपरा बहुत बाद तक चलती रही है।
गड़ा हुआ धन सबको नहीं मिलता। लेकिन सबको तालाब से जोड़कर देखने के लिए भी समाज में कुछ मान्यताएं रही हैं। अमावस और पूनों इन दो दिनों को कारज यानी अच्छे और वह भी सार्वजनिक कामों का दिन माना गया। इन दोनों दिनों में निजी काम से हटने और सार्वजनिक काम से जुड़ने का विधान रहा है। किसान अमावस और पूनों को अपने खेत में काम नहीं करते थे। उस समय का उपयोग वे अपने क्षेत्र के तालाब आदि की देखरेख व मरम्मत में लगाते थे। समाज में श्रम भी पूंजी है और उस पूंजी को निजी हित के साथ सार्वजनिक हित में भी लगाते जाते थे।
श्रम के साथ-साथ पूंजी का अलग से प्रबंध किया जाता रहा है। इस पूंजी की ज़रूरत प्राय: ठंड के बाद, तालाब में पानी उतर जाने पर पड़ती है।
७४ आज भी खरे हैं तालाब