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इतनी बड़ी योजना बनाने से लेकर उसे पूरी करने तक के लिए कितना बड़ा संगठन बना होगा, कितने साधन जुटाए गए होंगे—नए लोग, नई सामाजिक और राजनैतिक संस्थाएं, इसे सोचकर तो देखें। मधुबनी में ये तालाब आज भी हैं और लोग इन्हें आज भी कृतज्ञता से याद रखे हैं।

कहीं पुरस्कार की तरह तालाब बना दिया जाता, तो कहीं तालाब बनाने का पुरस्कार मिलता। गोंड राजाओं की सीमा में जो भी तालाब बनाता, उसे उसके नीचे की जमीन का लगान नहीं देना पड़ता था। संबलपुर क्षेत्र में यह प्रथा विशेष रूप से मिलती थी।

दंड-विधान में भी तालाब मिलता है। बुंदेलखंड में जातीय पंचायतें अपने किसी सदस्य की अक्षम्य गलती पर जब दंड देती थीं तो उसे दंड में प्रायः तालाब बनाने को कहती थीं। यह परंपरा आज भी राजस्थान में मिलती है। अलवर ज़िले के एक छोटे से गांव गोपालपुरा में पंचायती फैसलों को न मानने की गलती करने वालों से दंड स्वरूप कुछ पैसा ग्राम कोष में जमा करवाया जाता है। उस कोष से यहां पिछले दिनों दो छोटे-छोटे तालाब बनाए गए हैं।

गड़ा हुआ कोष किसी के हाथ लग जाए तो उसे अपने पर नहीं, परोपकार में लगाने की परंपरा रही है। परोपकार का अर्थ प्रायः तालाब।

समाज के साथ घटोइया बाबा भी तालाब के पालक हैं

७३ आज भी खरे हैं तालाब