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हरा बाग सचमुच बहुत बड़ा है। विशाल और ऊंची अमराई और उसके साथ-साथ तरह-तरह के पेड़ पौधे। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में, वहां भी प्रायः नदी के किनारे मिलने वाला अर्जुन का पेड़ भी बड़ा बाग में मिल जाएगा। बड़ा बाग में सूरज की किरणें पेड़ों की पत्तियों में अटकी रहती हैं, हवा चले, पत्तियां हिलें तो मौका पाकर किरणें नीचे छन-छन कर टपकती रहती हैं। बांध के उस पार पहाड़ियों पर राजघराने का श्मशान है। यहां दिवंगतों की स्मृति में असंख्य सुंदर छतरियां बनी हैं।

अमर सागर घड़सीसर से ३२५ साल बाद बना। किसी और दिशा में बरसने वाले पानी को रोकना मुख्य कारण रहा ही होगा लेकिन अमर सागर बनाने वाले संभवतः यह भी जताना चाहते थे कि उपयोगी और सुंदर तालाबों को बनाते रहने की इच्छा अमर है। पत्थर के टुकड़ों को जोड़-जोड़ कर कितना बेजोड़ तालाब बन सकता है—अमर सागर इसका अद्भुत उदाहरण है। तालाब की चौड़ाई की एक भुजा सीधी खड़ी ऊंची दीवार से बनाई गई है। दीवार पर जुड़ी सुंदर सीढ़ियां झरोखों और बुर्ज में से होती हुई नीचे तालाब में उतरती हैं। इसी दीवार के बड़े सपाट भाग में अलग-अलग ऊंचाई पर पत्थर के हाथी-घोड़े बने हैं। ये सुंदर सजी-धजी मूर्तियां तालाब का जलस्तर बताती हैं। अमर सागर का आगौर इतना बड़ा नहीं है कि वहां से साल भर का पानी जमा हो जाए। गर्मी आते-आते तालाब सूखने लगता। इसका अर्थ था कि जैसलमेर के लोग इतने सुंदर तालाब को उस मौसम में भूल जाएं, जिसमें पानी की सबसे ज्यादा ज़रूरत रहती!

जैसलमेर के शिल्पियों ने यहां कुछ ऐसे काम किए, जिनसे शिल्पशास्त्र में कुछ नए पन्ने जुड़ सकते हैं। यहां तालाब के तल में सात सुंदर बेरियां बनाई गईं। बेरी यानी एक तरह की बावड़ी। यह पगबाव भी कहलाती है। पगबाव शब्द पगवाह से बना है। वाह या बाय या बावड़ी। पगबाव यानी जिसमें पानी तक पग, पग, पैदल ही पहुंच जा सके। तालाब का पानी सूख जाता है, लेकिन उसके रिसाव से भूमि का जल स्तर ऊपर उठ जाता है। इसी साफ छने पानी से बेरियां भरी रहती हैं। बेरियां भी ऐसी बनी हैं कि ग्रीष्म में अपना जल खो बैठा अमर सागर अपनी सुंदरता नहीं खो देता। सभी बेरियों पर पत्थर के सुंदर चबूतरे, स्तंभ, छतरियां और नीचे उतरने के लिए कलात्मक सीढ़ियां। गर्मी में, बैसाख में भी मेला भरता है और बरसात में, भादों में भी। सूखे अमर सागर में ये छतरीदार बेरियां किसी

६८ आज भी खरे हैं तालाब