के आसपास भी बेतरतीब बढ़ते शहर के मकान, नई गृह निर्माण समितियां और तो और पानी का ही नया काम करने वाला इंदिरा नहर प्राधिकरण का दफ्तर, उसमें काम करने वालों की कालोनी बन गई है।
घाट, पठसाल, पाठशालाएं, रसोई, बरामदे, मंदिर ठीक सार-संभाल के अभाव में धीरे-धीरे टूट चले हैं। आज शहर ल्हास का वह खेल भी नहीं खेलता, जिसमें राजा-प्रजा सब मिलकर घड़सीसर की सफाई करते थे, साद निकालते थे। तालाब के किनारे स्थापित पत्थर का जलस्तंभ भी थोड़ा-सा हिलकर एक तरफ झुक गया है। रखवाली करने वाली फौज की टुकड़ी के बुर्ज के पत्थर भी ढह गए हैं।
फिर भी ६६८ बरस पुराना घड़सीसर मरा नहीं है। बनाने वालों ने उसे समय के थपेड़े सह जाने लायक मज़बूती दी थी। रेत की आंधियों के बीच अपने तालाबों की उम्दा सार-संभाल की परंपरा डालने वालों को शायद इसका अंदाज़ नहीं था कि कभी उपेक्षा की आंधी भी चलेगी। लेकिन इस आधी को भी घड़सीसर और उसे आज भी चाहने वाले लोग बहुत धीरज के साथ सह रहे हैं। तालाब पर पहरा देने वाली फौजी टुकड़ी आज भले ही नहीं हो, लोगों के मन का पहरा आज भी है।
पहली किरन के साथ मंदिरों की घंटियां बजती हैं। दिन भर लोग घाटों पर आते-जाते हैं। कुछ लोग यहां घंटों मौन बैठे-बैठे घड़सीसर को
६६ आज भी खरे हैं तालाब