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दिन सूखे गिने गए हैं। यानी १२० दिन की वर्षा ऋतु यहां अपने संक्षिप्ततम रूप में केवल १० दिन के लिए आती है।

लेकिन यह सारा हिसाब-किताब कुछ नए लोगों का है। मरुभूमि के समाज ने संभवत: १० दिन की वर्षा में करोड़ों बूंदों को देखा और फिर उनको एकत्र करने का काम घर-घर में, गांव-गांव में और अपने शहरों तक में किया। इस तपस्या का परिणाम सामने है।

जैसलमेर ज़िले में आज ५१५ गांव हैं। इनमें से ५३ गांव किसी न किसी वजह से उजड़ चुके हैं। आबाद हैं ४६२। इनमें से सिर्फ एक गांव को छोड़ हर गांव में पीने के पानी का प्रबंध है। उजड़ चुके गांवों तक में यह प्रबंध कायम मिलता है। सरकार के आंकड़ों के अनुसार जैसलमेर के ९९.७८ प्रतिशत गांवों में तालाब, कुएं और अन्य स्रोत हैं। इनमें नल, ट्यूबवैल जैसे नए इंतज़ाम कम ही हैं। पता नहीं १.७३ प्रतिशत गांव का क्या अर्थ होता है। पर इस सीमांत ज़िले के ५१५ गांवों में से 'इतने' ही गांवों में बिजली है। इसका अर्थ है कि बहुत-सी जगह ट्यूबवैल बिजली से नहीं, डीज़ल तेल से चलते हैं। तेल बाहर दूर से आता है। तेल का टैंकर न आ पाए तो पंप नहीं चलेंगे, पानी नहीं मिलेगा। सब कुछ ठीक-ठीक चलता रहा तो आगे-पीछे ट्यूबवैल से जलस्तर घटेगा ही। उसे जहां के तहां थामने का कोई तरीका अभी तो है नहीं।

६० आज भी खरे हैं तालाब